Friday, July 30, 2010

कृपया उचित दूरी बनाये रखें .......

कुछ दिन पहले परिवार के साथ ऊटी घूमने का प्रोग्राम बनाया. सवेरे सवेरे कार से निकले और चल पड़े.

खेतों की हरियाली, बीच मे गहने जंगल, रास्ते मे छोटे छोटे ढाबे, बारिश के मौसम मे जवां होती नदियाँ, जल प्रपात, यानी हर चीज़ मनमोहक. वाकई मे मन को मोह लेने वाली. हमारी कार के आगे एक ट्रक चल रहा था, जिस पर काफी कुछ लिखा हुआ था....... जैसे...... जगह मिलने पर पास दिया जाएगा, कृपया होर्न दें... आदि आदि. लेकिन जिस पंक्ति ने मुझे छुआ.... वो थी... " कृपया उचित दूरी बनाये रखें .......". मुझे लगा ये तो जीवन मे भी सत्य बैठती है.

जी..... जरा सा मनन करिए इस पंक्ति पर "कृपया उचित दूरी बनाये रखें ......." अगर हम सभी इस को अपना जीवन मंत्र बना ले तो............. नहीं......... हंसिये मत.... सोचिये. अरे नहीं ऐसा मत सोचिये की एक ट्रक वाला अब हमे जीवन का मंत्र सिखायेगा क्या ? हो भी सकता है. हम सब के बीच मे परेशानियां कब बढती हैं, जब हम एक-दूसरे के साथ बहुत घुल-मिल जाते हैं या घुलने -मिलने   का प्रयत्न करते हैं. जब हम ज्यादा करीब हो जाते हैं तो एक दूसरे के गुण और अवगुण भी नज़र आने शुरू हो जाते हैं. और फिर हम एक दूसरे की कमियाँ भी देखने लगतें हैं. और जब उन कमियों को हम बर्दाशत नहीं कर सकते तो किनारा करना शुरू कर देते हैं. और रिश्तों मे दरार पड़ जाती है. हम सब उन रिश्तों को ज्यादा महत्व देते हैं जो हमारे मन मुताबिक़ हों. कहने को हम सब एक परिवार हैं. लेकिन परिवार मे एक दूसरे को सहना भी पड़ता है और फिर साथ साथ चलना भी पड़ता है. ... यही तो परिवार की खूबी है.

मै गलत तो नहीं कह रहा हूँ? इसी भूमिका पर मुझे बशीर बद्र साहब की एक शेर याद आ रही है.....

कोई हाँथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिजाज़ का शहर है, जरा फासले से मिला करो.

ये सोचना हमको है की हम पास रह के दूर रहे... या.... दूर रह के पास रहें. इसलिए बंधुओं ....कृपया उचित दूरी बनाये रखें .......

है न लाख दर्जे की बात...........................

Sunday, July 18, 2010

खामोशी....

क्या कहा.......... रात बहुत बीत गयी है?
अच्छा है.. ख़ामोशी मे कलम खूब चलती है. सुनो.. जरा लालटेन मे तेल डाल दो. इस लेख को पूरा करना है,
क्या........... तेल नहीं है. ........... ये भी अच्छा है.

ठीक कह रही हो......... सिर्फ कागज पर अक्षर उतारने से घर नहीं चलता. लेकिन कल अखबार वालों को ये लेख चाहिए. अगर दे दूंगा तो 500 रूपए आ जाएंगे.

हाँ कल रामलाल भी मिला था, धीरे से वो भी अपने पैसों के बारे में पूंछ रहा था. मैने कहा भाई दे दूंगा, मै कहीं नहीं जा रहा हूँ. तुम भी ठेक कहती हो सिर्फ प्राइमरी स्कूल की तनख्वाह से घर नहीं चलता. अब तो ये भी नहीं याद है की तुम आखिरी  बार साड़ी कब खरीदवाई थी.

देखो मै भी बदलने की कोशिश तो कर रहा हूँ. मै भी वो लिखने की कोशिश कर रहा हूँ जो लोग पढना चाहते हैं. लेकिन मै इस जमाने के लायक कैसे बनूँ, इतना छोटापन मेरे बस का नहीं.

आप जानते हैं , आप की समस्या क्या है?

क्या...?

आप मूल्यों और संस्कारों की बात करते हैं. मै ये नहीं कहती की आप गलत हैं. लेकिन बाज़ार मे जो बिकता है, वो बेचिये ?

ठीक कह रही हो.लेकिन एक बात बताओ : अगर नमक ने अपनी नमकीनियत खो दी , तो उसे कौन नमकीन करेगा." तुम क्या सोचती हो की हकीकत सिर्फ मै ही लिखता हूँ. ये मूल्य ये संस्कार ये मेरे कमाई है और चंद रुपयों की ख़ातिर मै इनको बेच दूँ, क्या तुम ये गवांरा करोगी?

तो रास्ता क्या है?

काहे का रास्ता?

क्या हम लोग ऐसे ही रहेंगे?

ऐसे ही मतलब? क्या हम लोग कभी भूखे सोयें  हैं? क्या हम कभी बिना कपड़ो के रहे हैं? क्या कभी कोई रात हमने बिना छत के गुजारी है? नहीं................ समस्या हमारी असीमित इच्छाएं हैं.जो एक के बाद एक, सुरसा की मुँह की तरह फैलती ही जाती हैं, बढती ही जाती हैं. मैं  प्राइमरी स्कूल मै पढ़ाता हूँ. और मेरा मालिक इतना मेहरबान है मुझ पर की किसी के सामने हाँथ फैलाने की नौबत नहीं आई. और क्या लोगी?

तुम अखबार पढ़ती हो...... हत्या, बलात्कार , चोरी , भ्रष्टाचार .... कभी इन सब का कारण जानने की कोशिश करी?

समाज मे बढ़ता असंतुलन , हर तरफ.... अमीरी- गरीबी के बीच बढती खाई. हर चीज़ दोषी है. ये वक़्त है जब हमको अपने संस्काओं और अपने मूल्यों को बचाना है. कल जब मुन्ना बड़ा होगा तो उसे क्या सीखाएँगे.

कम से कम इतना तो कह सकतें हैं

" जो भी दौलत थी वो बच्चों के हवाले कर दी,
जब तलक मे न बैठूं , वो खडें रहतें हैं."

इसलिए, श्रीमती  जी..... अगर संभव हो तो लालटेन मे तेल डालदो. और ये ध्यान  रखो की एक न एक दिन ये कलम ही क्रान्ति लाएगी. हो सकता है वो दिन देखने के लिए मै न रहूँ, लेकिन..... वक़्त तो बदलेगा. और वक्त के साथ सब से बड़ी अच्छाई यही है... की वो गुजर जाता है..... अच्छा  हो या बुरा ..... गुजर जाता है.

समाज को बदलने की कोशिश मै नहीं करता. मै सिर्फ अपने आप को नियंत्रित करने का प्रयत्न करता हूँ. समाज हमी से तो बनता है. अगर हम अपने आप को बदल लें , समाज तो खुद ब खुद बदल जाएगा. हंसी आ रही होगी......... की लो एक और समाज सुधारक ......








   .    

 

Friday, July 16, 2010

एक कील और....

एक कील और........ जी हाँ, एक कील और.

अंग्रेजी मे एक कहावत है   "A bad man is better then a bad name". क्या आप सहमत हैं?

सुंदर लाल " कटीला" , ये नाम आप ने मेरे ब्लोग्स मे पढ़ा होगा. चलिए आज इनसे आप का परिचय करवाता हूँ. सुंदर लाल रंग रूप मे श्याम वर्ण के हैं, डीलडोल मे सुखे पतले- दुबले. आंखें बिल्ली जैसी चमकती हुई, और होंठो के किनारे से बहता हुआ लाल रंग का पान. अब आप समझ गए होंगे की उनका तखुलुस " कटीला" उनपर कितना फबता होगा.

खैर, मेरे मित्र , जी हाँ, सुंदर लाल जी "कटीला", की ये विशेष आदत है, की वो दूसरों के दोष भी अपने उपर ले लेते हैं और खुद चाहे अंदर से घुट के मर जाएँ, लेकिन जिस के लिया इलज़ाम उठाया, उसकी नज़र न नीचे हो. अब बताइए ऐसे इंसान को , आज कल के जमाने की हिसाब से , आप क्या कहेंगे......... सज्जन या परले दर्जे का बेवक़ूफ़.  

आज मै कमियाँ गिनाने बैठा हूँ.... और सुंदर लाल तुमको सुनना पड़ेगा. तुम्हारी सब से बड़ी कमजोरी है , दुनिया को अपना मानना, सब को अपना समझना. तुमको ये क्यों नहीं समझ मे नहीं आता की लोग तुम को इस्तेमाल कर रहे हैं.................? देखो तुमको इस्तेमाल करके कौन कहाँ से कहाँ पहुँच गया.............. और तुम?????

 भाईसाहब............... मै आप की हर दलील से इतेफाक रखता हूँ.... मै हूँ ही ऐसा..... आप एक बात बताइए . इंसान का जो स्वभाव होता है, वो तो ईश्वर की देन है....?  मानते हैं...?

हाँ मानता हूँ.

तो क्या चंद लोगों की ख़ातिर आप उस परमपिता की दी हुई अनमोल भेंट को अस्वीकार कर देंगे. 

नहीं............

अरे अगर लोग मुझको इस्तेमाल करते हैं , तो इसका मतलब तो यही हैं की मै किसी लायक हूँ...? अगर मै नालायक होता तो क्या वो मुझे इस्तेमाल करते?

नहीं............

तो फिर.

रही अंदर - अंदर घुटने की बात. भाई, मै जो करता हूँ, या जो मेरे साथ होता है या हो रहा है, वो मेरे कर्म को फल है. तो घुटन कैसी. अरे घुटते तो वो होंगे जिनकी नीयत ठीक न हो.

सुंदर लाल तुम तो दार्शनिक हो गए हो.

दार्शनिक या बेवक़ूफ़...... ये भगवान् जानता है. जब तक लोग अपने अपने पूर्वाग्रहों मे फंसे रहेंगे....... इंसान कैसे सुधरेगा.

हम सभी किसी से जब मिलते हैं तो अगर उनके बारे मे कोई पूर्वाग्रह है तो उसी नज़र से देखतें है. हमारी ये सोच उस इंसान को ये साबित करने का मौका ही नहीं देती की " मेरे दोस्त, मै वो नहीं हूँ, जो आप मेरे बारे में सोचतें हैं". मुझे याद आती है नूर  साहब की वो शेर:-

अब तो बस जान ही देने की है बारी ए नूर,
मैं कहाँ तक करूँ साबित की वफ़ा है मुझ मैं.

सुंदर लाल " तुम पे रोज़ इलज़ाम लगते है.... तुमको तकलीफ नहीं होती??

तकलीफ......... होती है भाईसाहब ... जरुर होती. इंसान हूँ कोई, पत्थर तो नहीं.

फिर.....

फिर क्या...

तुम जवाब क्यों नहीं देते.....

भाई साहब.... अंधो के आगे रोना, अपने नैना खोना.

फिर तुम कैसे सब पी जाते हो.

भाईसाहब... मेरे उपर और सब कामों की इतनी मोटी चादर है, की इतना वक़्त मेरी पास नहीं है. की मै इनसब पर सोचूं. वक़्त और भगवान् .... ये दोनों मेरी साथ न्याय जरुर करंगे..... क्या सच है, क्या झूठ... वक़्त के साथ सब सामने आएगा.....और किसने मेरे साथ क्या किया, या मैने किसके साथ क्या किया....... इस का निर्णय भगवान् के उपर, क्योंकि वो सर्वज्ञ है.

मै ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ " ए मेरे मालिक, मेरे अंदर जो कमियाँ हैं, मुझे शक्ति दे की मै उनको दूर कर, तेरे करीब आ सकूँ". और अपने दोस्तों से गुजारिश करता हूँ...... एक कील और...... 

   

Tuesday, July 13, 2010

मेरे घर के आगे "मुहब्बत" लिखा है.

रज़िया................ माँ की आवाज़.

आई अम्मी.........

कहाँ घूमती फिर रही है..........? सवेरे से . चल नाश्ता कर ले.

मै थोड़ा सा परिचय करा दूँ. मेरे घर के पड़ोस मे मकारिम मुल हक़ साहब रहते है. पिछले १७ सालों से हम लोग पडोसी है. एक ही परिवार है, यूँ भी कह सकते हैं. मैं उनकी नमाज़ का कायल हूँ और वो मेरे ध्यान के. उनके २ बच्चे हैं- रज़िया और शमीम.

रज़िया की उम्र ९ साल और शमीम की १२. मेरे दो बच्चे हैं नैना और आनंद. नैना , रज़िया की हम उम्र और आनंद शमीम से एक साल बड़ा. या तो वो मेरे घर मै रहते हैं या मेरे बच्चे उनके घर. रज़िया की अम्मी का नाम शबनम है. उनके मायेके मै कोई जलसा है जिसमे  शिरकत फरमाने वो लोग फैजाबाद जा रहे हैं. घर मे एक अजीब सा त्यौहार का माहोल बना हुआ है. मेरी पत्नी ने कह रखा है की उनके रास्ते का खाना वो बनायेंगी और शबनम कल बाज़ार गयी थी रज़िया और शमीम के लिए नए कपड़े खरीद ने तो नैना और आनंद के भी नए कपड़े आये.

अम्मी........... मैने नैना के साथ नाश्ता कर लिया है और शमीम और आनंद भाई को लेकर चाचा  बाज़ार गए हैं. बच्चे इज्ज़त से मुझे चाचा कहते हैं.

तुम क्यों चची को परेशान कर रही हो.......

कौन मुझको परेशान कर रहा है........... राधिका का सवाल (राधिका मेरी पत्नी का नाम है)

अरे भाभी ........... देखो न. चिड़िया की तरह फुदकने की इसकी आदत अभी गयी नहीं. मै नाश्ता तैयार करके बैठी हूँ ... किसी का पता ही नहीं हैं...

शबनम....... सब ने नाश्ता कर लिया है, मैने सोचा तुम्हारे साथ नाश्ता करू तो मै ये उपमा लाइ हूँ..... लाओ तुमने क्या बनाया है.

भाभी........ अभी कितना काम है. कपडे भी नहीं पैक किये हैं.

शबनम........ सब हो जाएगा.

भाभी आप हो तो हिम्मत बंधी रहती है.

अच्छा .... अच्छा........ मक्खन कम लगाओ. लाओ नाश्ता दो. तुम्हारे भाई साहब कल ये वालिद और वालिदा के लिए लायें है इनको रखो.

भाभी.................

कुछ कहना मत. चुपचाप रखो. अगर छुट्टी की समस्या नहीं होती तो हम सभी फैजाबाद चलते.

कितना अच्छा होता न, भाभी, अगर हम सब लोग चलते.

कोई बात नहीं..... फिर कभी. सेवइयां  तो बड़ी अच्छी............. बनी हैं.

अच्छा...... अभी मैं चलती हूँ. कोई जरूरत तो आवाज़ दे लेना.

जरूर भाभी.

मै और मकारिम मियाँ स्कूल से साथ साथ हैं. मियां उर्दू, फारसी , हिंदी , अंग्रेजी मै माहिर हैं और रात को जब कुरआन शरीफ या भगवद गीता की कहानियां चारों बच्चो को नहीं सुनाते, मियाँ का दिन पूरा नहीं होता. कभी धर्म हमारे बीच नहीं आता. पाँचो टाइम के नमाज़ी हैं.

दीवाली कभी उनके बिना पूरी नहीं होती और ईद कभी हमारे बिना नहीं मनती. एक बार दीवाली की मिठाई पहले उनके घर नहीं तो बुरा मान गए थे , मियाँ.

तुम फर्क करने लगे हो..............?

दिल टूट गया ये सुनकर. माफ़ी मांगनी पड़ी. लेकिन जिस तरह से गले लगा कर बोले " तुम मेरे भाई हो, आइन्दा कभी माफ़ी मांगी तो खुदा मुझे माफ़ नहीं करेगा."

एक बार नैना की तबियत नहीं ठीक थी और मुझे काम के सिलसिले मे बाहर जाना था. परेशान था. मियाँ चेहरे के भाव खूब पढते हैं " घर आये तो सीधे पूंछा क्या बात क्यों परेशान हो?"

नैना बीमार है और मुझे बाहर जाना है.

तो........ जाओ.

बाद मे पता चला की मियाँ ने तीन दिन दूकान नहीं खोली. मियाँ और शबनम ने नैना को गोद से उतारा नहीं.

अगर कभी मैं गुस्से मे मियाँ के लिए कुछ कह दूँ तो राधिका मेरे बीच मे खड़ी हो जाती है.

बाहर के लोग हमे हिन्दू और मुसलमान के रूप मे जानते है. जब इंसान के रूप मे जानना हो......... तो हमारे घर आइयेगा. अगर कभी मुझसे और मियाँ से मिलने का मन हो इलाहाबाद आइये बस धर्म, जाती, सम्प्रदाय का चश्मा उतार दीजियेगा मैं और मिया आपको बाहें पसारे मिलेंगे

मेरे घर का सीधा सा इतना पता है... मेरे घर के आगे "मुहब्बत" लिखा है.






  

Monday, July 12, 2010

एक मंथन ऐसा भी...

एक मंथन ऐसा भी....... जहाँ ह्रदय एक विस्तृत सागर है और मन, एक मथनी की तरह उसे मथ रहा है. अब मेरे अंदर का विष बाहर आ रहा है....... दूर हटो, देखो ये विष कहीं तुमको भी न डस ले. 

नहीं........... मेरे अंदर विष कैसे हो सकता है.

ये संस्कारों का विष है. जो हम पिछले जन्म से ले कर आये हैं.

आओ तुमको एक कहानी सुनाता हूँ. भीष्म जब शर-शैया पर थे, तो कृष्ण उनसे मिलने आये. उन्होंने कृष्ण से पूंछा की ये मे कौन से जन्म के संस्कारों की सजा पा रहा हूँ? मैने अपने पिछले ९९ जन्म मे जा कर देख लिया, मैने कोई ऐसा काम नहीं किया था जिस का परिणाम ये शर-शैया होती?

कृष्ण मुस्कराये और बोले " पितामह, आप ने एक जन्म पीछे जा कर और देखा होता तो आप को अपने प्रश्न का उत्तर  मिल जाता. अपने १०० वें जन्म मे भी आप एक राजकुमार थे और एक बार शिकार के समय, एक सांप को उसकी पूंछ से पकड़ कर आप ने जो फेंका था, वो कांटो पर जा कर गिरा, वो दृश्य आपने देखा और उसकी छाप आपके मन पर इतनी गहरी पड़ी, की वो संस्कार बनी और अब जा कर उसका भोग हुआ". 

तो ये है संस्कारों की शक्ति और उनका खेल. कौन सा संस्कार कब उभरे...... कौन जानता है. जयशंकर प्रसाद की वो पंक्तियाँ - " कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन आनंद". निकलने दो मेरे संस्कारों को. मेरे मौला........मेरे मालिक. क्यों किसी और को दोष दें? जो गलत हो रहा है........... वो मेरे ही तो कर्म का फल है. और फिर गलत क्या और सही क्या? जो हमारे हिसाब से गलत है, संभव है, उस वक़्त के हिसाब से वही हमारे लिए अच्छा हो.......... कौन जानता है.

इसलिए.... मेरे मन. सर झुका और जो कुछ भी तेरे साथ हो रहा है..... मालिक का शुक्रिया अदा कर. और दुआ कर की हे मालिक, कुछ ऐसा कर की सारे संस्कारों का भोग इसी जन्म मे हो जाये. अगल जन्म............. न. इसलिए उसे अपना जो सहज मार्ग है. सब कुछ मालिक का, मालिक की मर्जी ................ यही है मुक्ति का रास्ता. संस्कारों का पिंजरा नहीं .......... अब और नहीं. पिंजरा , पिजरा ही होता है चाहे बांस का हो या सोने का. पंछी के लिए तो क़ैद ही है. अब ये पंछी किसी तरह की क़ैद मे नहीं जाना चाहता.

नहीं......... मेरे मालिक और नहीं. तूने रास्ता तो दिखा दिया, अब हिम्मत भी बक्श मेरे मालिक ताकि तेरे बाते रास्ते पर चल कर इस आवागमन से मुक्ति मिले. मुझे अपने परम धाम मे ले चल. जहाँ से कोई वापस नहीं आता. जिन जिन विषयों मे ये मन आसक्त है............. मालिक निकाल मुझे उनसे. शक्ति दे, ताकि अपने आप की इस लड़ाई मे मे विजयी हूँ. " विजयी भव:" का आशीर्वाद दे मुझे, और जीवन की इस आखरी लड़ाई मे मेरा साथ दे मेरे मालिक.

तूने तो गज को भी ग्राह से मुक्ति दिलाई थी, तुने अजामिल को भी मुक्ति दी. तू राजऋषि जनक भी हुआ और सुदामा भी.

क्या तू मेरी नहीं सुनेगा.................... मेरे मालिक.

  

Sunday, July 11, 2010

अगर उचित लगे...... तो आगे मिलेंगे.

निदा फाजली साहब की एक शेर है
" हर आदमी में होते हैं , दस बीस आदमी.
जब भी किसी को देखना, कई बार देखना".

एक तराजू और अपने आप को नापने का. क्या हम ने कभी ये सोचा है की हम कितनी जिन्दगियाँ एक बार मे जीते हैं? और उनमे से कितनी बार हम मरते हैं.... रोज़ मरते है. और फिर भी एक लम्बी आयु की कामना करते हैं. कुछ याद आया.... जी ठीक वही जो आप सोच रहे है. युधिष्टर - यक्ष संवाद.

किसी के लिए हम कुछ और किसी के लिए कुछ.......... क्या ये जरूरत है या मजबूरी. कुछ  लोग इस कला मै माहिर होते हैं. लेकिन मै इस दोहरी, तिहरी न जाने कितनी जिन्दगियाँ जीते जीते उब गया हूँ, थक गया हूँ. काफी समय से सोच रहा हूँ की मै सिर्फ , मै बन कर जियूँगा. लेकिन कैसे..... क्या मै अपनी  जिन्दगी नहीं जी सकता.

मै खुद, मेरा मन, और मेरा ह्रदय , इन तीनो के बीच रोज़ मरता हूँ. लेकिन अब नहीं............. एक दिन एक सज्जन से मुलाक़ात हुई. उनसे भी मैने इस बात के चर्चा  की तो हंसे और बोले....  तुम अकले नहीं हो. सब हैं. ये और बात की कितने लोग इस त्रिकोण से निकलना चाहते है.

क्या करूँ.........

ध्यान करो........

किस पर, किस का ध्यान ?

ह्रदय पर.......... मालिक का ध्यान.

क्या..............?

हाँ......... तुम ये तो मानते हो की ह्रदय हमारा  केंद्र बिंदु  है. अगर ह्रदय रुक जाये तो इंसान खत्म.

जी. ....मानता हूँ.

ह्रदय मे ईश्वर का निवास है........... मानते हो?

जी....... मानता हूँ.

जैसा हम सोचतें हैं, वैसा हम बनते हैं. ............. जानते हो?

जी..........

अगर मै ये कहूँ की तुम ईश्वर हो........... क्या कहोगे?

मै हाँथ जोड़ता हूँ........... मुझे माफ़ करें.

मै जानता था. अच्छा एक बात बताओ.

तुमने अभी ये माना की ईश्वर का निवास तुम्हारे ह्रदय मे है. तो उसकी शक्तियां भी तुम्हारे अंदर हैं. इस बात को भी मानो और स्वीकार करो. हम सभी को ईश्वर ने असीम शक्ति का मालिक बनाया है बस उसपर माया की चादर डाल दी और हम से कहा जाओ.............चादर हटाओ और अपने आप को देखो.

लेकिन हम.................  माया की चादर हटाने के बजाय उसे लपेट बैठे. बोलो क्या मै गलत कह रहा हूँ.

नहीं.........

इन्सान के उत्थान  के लिए जो जरुरी होता है, ईश्वर ने वो सब हमे दिया.... बुधि और इच्छा शक्ति. Intelligence and will power. ये बात मानते हो?

जी....

लेकिन क्या हम इन दोनो वरदानों का उपयोग उस लिये करते हैं, जिस लिए करना चाहिये?  ध्यान दो मैने "वरदान", शब्द का प्रयोग किया है. हम ईश्वर से वरदान मांगते हैं, भीख मांगते हैं...........हमे ये दे दो, वो दे दो... वो भी हंसता होगा. अरे सब कुछ तो मैने तुमको दे दिया .............. हम  न पहचाने , तो गलती हमारी  है.

ईश्वर ने  बुधि दी, सही - गलत का चयन करने के लिए और इच्छा शक्ति दी, सही मार्ग पर चलने के लिए. उचित समय पर उचित कदम.......... यही तो सफलता का रास्ता है.  और वरदान क्या होता है.

वो तो ठीक है........... लेकिन क्या ध्यान से ये सब संभव है?

ये सब ध्यान से ही संभव है.

अपने आप को समेटो और एक बनो. तुम तो जानते होगे जब नदी मे, या नहर मे एक प्रवाह होता है तो उसकी धार तेज होती है, लेकिन जब उसमे से कई धाराएँ अलग अलग बहती हैं तो उसके प्रवाह की तेजी कम हो जाती है. उसी तरह मन को एक तरफ मोड़ो. उसकी जो इधर-उधर भागने की आदत  है, उस को वश मे करो........ तब तुम पाओगे तुम दस बीस नहीं सिर्फ एक हो. और वो एक तुम नहीं सिर्फ "वो" है.

ध्यान एक साइंस है, ध्यान दर्शन है........... ह्रदय को केंद्र बनाओ. फिर देखो.................... जब तुम उसको अनुभव करोगे तब वहाँ पर अपने आप को ही पाओगे..... इसे ही तो आत्म्साक्ष्त्कार कहते है.

देखो ---------- Read and enjoy or do and become-----------पसदं तुम्हारी है. वो तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, क्योंकि उसके पास असीम समय है " कालोअस्मी" कृष्ण ने कहा गीता मे. तुम ये देखो तुम्हारे पास कितना समय है. उसने तो सिर्फ तुमको यहाँ भेजा था, तुमने अपने आप को हिस्सों मे बाँट लिया....... सोचना,  अगर उचित लगे...... तो आगे मिलेंगे.   

Friday, July 9, 2010

मांग........

मुझपे कुछ लिखो........... एक मांग.

आजकल मे बाहर वालों से कम , अपने आप से ज्यादा बात-चीत करता हु. इसलिए समझ गया की ये मेरे दिल की आवाज़ है, एक मांग है.

तुम पे, और मैं लिखूं.......?

हाँ क्यों..........?

नहीं........... तुम पे लिखना, अपने आप पे लिखना नहीं होगा? 

नहीं......... जब तुम अपने आप पे लिखते हो तो अपनी दुनिया से बाहर जाकर देखने की तुम्हारी आदत तुमको अपने आप से दूर कर देती है. इसलिए मुझपे लिखो.

एक शेर अर्ज़ कर सकता हूँ...........?

इरशाद.

लब क्या बताएं , कितनी अज़ीम उसकी जात है.
सागर को सीपियों से उलचने की बात है.

वाह.......... शब्दों मे घुमाना तुम्हें खूब आता है. चलो अब लिखना शुरू करो.

कहाँ से शुरू करूँ, तुम्हारा तो न आदि है न अंत. और मै तो तुमको कुछ सालों से ही जानत्ता हूँ.

मै तो तुम्हारे साथ शुरू से हूँ.

वो मै मानता हूँ लेकिन क्या मै तुम्हारे साथ शुरू से था? समस्या यहाँ से है.

तुम्हारे किस रूप के बारे मैं लिखूं? हर रूप तो मैने देखा है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा, काली हर रूप मै तो तुम मेरे सामने आये हो. तुमको  माँ की तरह ध्यान रखते हुए देखा है, तुमको दोस्त की तरह मुश्किलों से बचाते हुए देखा है, तुमको प्रियतम की तरह सर्वस्व न्योछावर करते हुए देखा है. तुमको एक तपस्वनी के तरह खुद को जलाते हुए देखा है. तुम मुनि भी हो , ऋषि भी,  रम्भा भी हो और मेनका भी. कितने रूप हैं तुम्हारे और कितनी सहजता से तुम अपने आप को हर रूप मे ढाल लेते हो. 

तुम इतने पवित्र हो, की तुम्हारे अंदर मालिक ने अपना निवास बनाया. तुम अन्तरिक्ष की तरह असीम और एक इंसान की तरह सीमित भी हो. अपने आप को सब के अंदर देखना, और सब को अपने अंदर महसूस करना, तुम्हारी विशेषता है. जिसको कृष्ण ने गीता मे कहा " यो माम पश्यति सर्वत्रम, सर्वं च मयी पश्यति". तुम ईश्वर के प्रिय हो. जो ईश्वर का प्रिय हो, वो मेरा है.

तुम एक गीत हो तो एक ग़ज़ल भी हो. तुम खूबसूरत हो तुम बदसूरत भी हो. अवसर के अनुसार अपना रूप प्रकट करने की शक्ति तुमको अलग ही खड़ा करती है. गरल पी कर अमृत बांटने की तुम्हारी आदत, कितने ल्लोग महसूस करते है.

पर दुर्भाग्य तुम्हारा पीछा भी नहीं छोड़ता. कितने लोग तुमको जो तुम हो वो देखते हैं. कितनी बार तुमको अपने वास्तविक रूप को छोड़कर लोगों की जरूरतों के हिसाब अपने आप को उनके सामने व्यवहार करते हुए देखा है, बच्चों के साथ तुम तो बिलकुल बच्चे हो जाते हो. और जब तुम्हारा दार्शनिक रूप मेरे सामने आता है, तो मे सहम सा जाता हूँ. कई बार तुमको अच्छी तरह से पढने की कोशिश की, हर बार असफल हुआ.       

तुम जल हो. जैसे जिस बर्तन मे जल डालो, वो उसी का रूप ले लेता है, वो हो तुम.

और क्या लिखूं तुम जल हो या जीवन....................... अब तुम बोलो.

हु................

क्या हु.............. बोलो. क्या मैने गलत लिखा.

नहीं........ तो तुम भी महसूस करते हो..... तुम्हारे पास मैं हूँ. इस बात का ज्ञान है तुमको.

तुम हो तो मै हूँ.

अगर मै अपने आप को हटा लूं, तो सिर्फ तुम ही तुम हो. 

कैसी अजीब शर्त है दीदार की लिए, 
आंखें जो बंद हो तो, वो जलवा दिखाई दे. 

ये खासियत है तुम्हारी. तुम्हारी बारे मे कुछ जानना हो तो मै खुद को अलग करूँ तभी कुछ लिख सकता हूँ.  तुम प्रेम स्वरुप हो. मै जब अपने आप को तुमसे अलग करता हूँ, कितनी दिखावे की जिन्दगी जीता हूँ. तुम्हारे साथ जो मै हूँ, वो हूँ. ओरों के साथ, मुझे जो नहीं हूँ, वो भी बनना पड़ता है. कितना बोझ उठाता हूँ, मै.

तपस्वनी - 2

कब तक और क्यों इस बात की परवाह करते हो की कौन क्या कहेगा. भगवान् ने इंसान को जुबां दी है तो वो तो बोलेंगे ही. धोबी  ने सीता को बक्श दिया था क्या?

आप इस गाँव और इस मंदिर मे क्यों आई? मेरा सीधा सवाल.

ओह............. तो तुम को ये बात सता रही है.

नहीं ऐसी बात नहीं है.

जब आप गेरुआ नहीं पहनती, और घर अरिवार वाली हैं तो आप यहाँ क्यों?

देखो........... हर आदमी छुट्टियों मे कहीं न कहीं जाता है. मेरे बच्चे अपने बाबा दादी के घर गए, पति अपने व्यसाय मे हैं और मे कुछ दिन के लिए यहाँ चली आई. बस इतनी सी बात है. संन्यास या तपस्वनी का अर्थ गृह त्याग होता है क्या? कुछ दिन मे अपने आप के साथ रहना चाहती हूँ. मेरी अपनी भी तो जिन्दगी है. क्या मे वो जी नहीं सकती.

क्या आप को मोह नहीं है? मैने थोड़ा सा दार्शनिक होते हुए पूंछा.

मोह................ किस से.

परिवार, बच्चों, माया.................से

तुम बहुत अच्छे हो. क्योंकि तुम सीधी बात करते हो. परिवार , बच्चे , पति सब मेरी जिम्मेदारी है. वो मै जिम्मेदारी  समझ कर ही निभाती हूँ. तो मोह कैसा.

आप मेरे लिए एक पहेली बन गयी हैं. मैने डरते हुए कहा. एक कप चाय पियेंगी ?

वाह........... चाय. इतना डरते हुए क्यों पूंछ रहे हो?

मेरे अंदर एक कमजोरी है. मै विश्वास करता हूँ.

ये कमजोरी नहीं ताकत है. क्या तुम सब पे विश्वास करते हो?

नहीं....?

किस पे करते हो?

जिस को हम अपना मानते हैं. जिस को हम प्रेम करते हैं.

हाँ.......... प्रेम ही जीवन  है.

लेकिन ..............

प्रेम मे लेकिन नहीं होता. प्रेम अपने आप मे पूर्ण है.  तुम को क्या लगता है की हनुमान मे इतना बल था की वो पर्वत को उखाड़ लेते? नहीं.... राम के प्रति उनका प्रेम इतना था की, उस प्रेम ने उनको ये शक्ति दी. क्या हनुमान एक छलांग मे समुन्द्र पार कर सकते थे?? नहीं......... वो अपने प्रियतम के प्रेम मे इतने दुबे थे की उनको किसी चीज़ की चिंता नहीं थी, किसी चीज़ का डर नहीं था.

ये प्रेम की ताकत थी??

हाँ......... बिलकुल.

क्या आप ने प्रेम किया.............. माफ़ करियेगा.

अरे इसमे माफ़ी वाल कोई बात नहीं है. मुझे  तुम्हारी सादगी अच्छी लगी.

प्रेम किया या नहीं......... ये तो मे भी नहीं जानती. लेकिन प्रेम बनना जरूर चाहती हूँ. मै गुलाब बनना चाहती हूँ. उसमे कांटे और फूल दोनों ही होते हैं. जिसको को चाहिये , वही मिलता है. हमारा  नजरिया, हमारी दिशा निर्धारित करता है. मत देखो कौन क्या कहता है. कृष्ण के 16000 रानियाँ थीं, ये तो सब जानते हैं, लेकिन वो योगेश्वर भी थे, ये कितने लोग जानते हैं. तो हमारी सोच, हमारा भविष्य निर्धारित करती है. प्रेम करो और प्रेम बनो.

आप यहाँ कब तक हैं.............

मैं..................... पता नहीं.

तुम यहाँ मंदिर मे क्यों आते हो? तपस्वनी का सवाल मुझसे.

मै अवाक.............

बोलो........ किसी चीज़ के लिए तो तुम्हारे दिल मे भी प्रेम  होगा, तभी तो तुम यहाँ आते हो.

मै प्रेम के विरुद्ध नहीं हूँ. मेरा तर्क शुरू हुआ. लेकिन लोगों की इंसान को इस्तेमाल करने की आदत और फिर फ़ेंक देने की आदत से दुखीं हूँ. 

ओह............. तो तुम ने प्रेम किया है. चलो इतना तो शुभ है. 



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तपस्वनी

तबियत से खानाबदोश हूँ , सो घूमता फिरता रहता  मन कहीं एक जगह नहीं ठहरता. हिमालय से मेरा विशेष लगाव है, शायद इसलिए की मेरा जन्म वहीं हुआ. नंदा देवी, त्रिशूल की बर्फ से ढकीं हुई चोटियाँ मुझे आज भी खींचती हैं. उतरांचल मुझे मेरा घर लगता है बाकी प्रदेशो मैं , मै अपने आप को मेहमान सा लगता हूँ.

खैर छोड़िए, मै भी क्या बात ले बैठा. मरे गाँव से कुछ दूर उपराड़ी नाम का गाँव है. देवदार के जंगलो के बीच एक तपत कुंड है जहाँ पर जमीन से इतना गरम पानी निकलता है की लोग पोटली मे चावल डाल कर उसमे उबाल लेते हैं. वहीं पर शिव का एक पुराना मंदिर है, जहाँ पर साधु-सन्यासियों का आना-जाना लगा रहता है. तपस्वी कई देखे लेकिन एक दिन अचानक एक तपस्वनी से मुलाकात हो गयी. न केसरिया कपड़े, न हाँथ मै माला, न गले मे रुद्राक्ष. ये कैसी तपस्वनी है? उत्कंठा बढ़ गयी.

शायद उस तपस्वनी ने मेरी उत्कंठा पढ़ ली. और मुझे पास बुलाकर पूंछा  क्या कुछ नया या अद्भुत देख रहे हो. क्या तपस्या गेरुए कपड़े पहन कर ही होती है.

नहीं...... मेरा जवाब था.

क्या आप ने घर परिवार त्याग दिया है..... मेरा स्वाभाविक सा सवाल.

नहीं.............. मेरा घर भी है और परिवार भी. मै अपनी सारी जिमेय्दारियाँ  निभाती हूँ. लेकिन कमल के पत्ते की तरह. सब मेरे अपने हैं , लेकिन कोई भी नहीं. तपस्या आग जला कर , हवन कर के होती हो.... ऐसा कोई नियम तो नहीं है. आग तो मैने भी जलाई है....... लेकिन अपने अंदर.

मै घर की तरफ वापस चल दिया. कुछ सोचता हुआ. क्या मतलब हुआ इसकी बात का...........? अपने अंदर आग जलाने का क्या मतलब होता है?

दुसरे दिन मेरी उन से फिर मुलाकत हुई. मुझे देख कर जोर से हंसी. अभी भी परेशान हो क्या.

नहीं परेशान नहीं.... थोड़ा आश्चर्य है.

वो क्यों.....?

आप तपस्वनी क्यों बनी?

मै...............? एक निशछल सी  हंसी.

तपस्वी तो तुम भी हो.

मै और तपस्वी.........गाँव मै जा कर मालूम करिए. तो मेरे बारे मे आप को पता चल जायेगा.

कौन किसी के बारे मे क्या सोचता है, ये जानना उतना जरूरी नहीं जितना ये जानना की तुम अपने बारे मे क्या सोचते हो............ एक सीधा सा तर्क.

तुम्हारे अंदर भी तो एक मुनि है. उसे जगाओ. तो तुम भी तो एक तपस्वी हुए. बोलो ठीक है की नहीं.

मै निरुतर.

मान लो तुम किसी चीज़ को पाना  चाहते हो, और वो तुम्हे नहीं मिलती. लेकिन दिल मे ता-उम्र उसकी तमन्ना बनी रहे. तो क्या तुम उस की तपस्या नहीं कर रहे हो, उसका ध्यान नहीं कर रहे हो ?  यही तो तपस्या है. जिस रोज़ दिल मे मालिक से मिलने की तड़प, जगह लेले,  तो तपस्या का रुख बदल जाता है. तपस्या तो इंतज़ार का दूसरा नाम है.

मै चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था और वो निष्काम और निर्लिप्त सी बोलती जा रहीं थीं.

Thursday, July 8, 2010

बाँध.

मानसून का आगमन, सावन का महीना, काले मेघों से घिरा आसमान किसका मन मयूर नहीं नाच उठेगा. मैं भी बारिश के मौसम मे घर के पास बहती हुई अलकनंदा नदी के पास जाकर बैठता हूँ और उसकी पागल हुई लहरों को देखता हूँ. मेरे मन मे ये विचार जरूर कौंधता है की अच्छा हुआ जो साहित्यकारों ने मन की तुलना किसी नदी से नहीं करी. मन को सागर कहा. क्योंकि सागर मे बाढ़ नहीं आती , सागर पे बाँध नहीं होता.

गंगा खतरे के निशाँ से उपर जा सकती है, घाघरा किनारे तोड़ सकती है, ब्रहमपुत्र बांधो की परवाह नहीं करती , लेकिन इस मन का क्या करूं....... अच्छा है न.......... मन कोई नदी न हुई. अगर मन बाँध तोड़ने की कोशिश करे तो? करता भी है. लेकिन जब मन का बाँध टूटता है तो बाढ़ नहीं आती , फिर सुनामी आती है. जो तबाही तो लाती ही है लेकी एक नए शुरुआत का सिरा भी साथ लाती है. मन विचलित होता है, बहकता है, लेकिन मेरी बात सुनता भी है. हम दोनों मे.... मुझमे और मेरे मन मे ये समझौता है. कभी कभी यूँ भी होता है.............

मन को बाँध मत................ मन को वश मे कर. काश मे वो अवस्था देख पाऊं या हासिल कर पाऊं की जो मै कहूँ , वो मन करे. न की जो मन कहे वो मै करूँ. कभी मन व्याकुल होता है तो कभी बेचैन और हाँ जब ये शांत होता है..................... तो दुनिया सुंदर लगती है. सब जगह उसका निवास दिखाई पड़ता है. सब जगह वो ही वो दिखाई पड़ता है. रे मन............... तू क्यों नहीं उसकी याद मे डूब जाता ........... जिसको प्रियतम कहते हैं.

कहाँ तक बांधू कहाँ तक बाँध बनाऊं. जब सब्र की नदी टूटती है तो कोई बाँध नहीं रोक सकता. नहीं , नहीं ........ मन ऐसा मत कर. तू तो देख मेरा है न, क्या इतनी भी नहीं सुनेगा मेरी. तूने ही तो मुझको मुझसे मिलवाया था अब फिर मुझको छोड़ रहा है. तू किसके लिए व्याकुल है........... वो जो तेरा है ही नहीं? तेरे पास तो वो असीम शक्ति है जो तुझको एक पल मे ब्रह्माण्ड के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने मे सक्षम है. तू निराशा मे आशा है , निर्जीव मे जीवन है.

मेरे मन................ राधा भी तो कृष्ण की न हो सकी, लेकिन दुनिया कृष्ण का नाम बिना राधा के तो नहीं लेता. राधा मन से कृष्ण और कृष्ण मन से राधा हो गए .............. मन तू क्या है.

क्या मैं मन पे बाँध बांधूं........? जा....... समां जा उसमे और उसका हो ले. वही तो जीवन है. तू तो सब मे है. उसके पास भी तो मन होगा........ काले काले मेघों का जादू उसपे भी तो होता होगा.......?

आज फिर दिल ने कुछ तमन्ना की, आज फिर हमने दिल को समझाया. .   

Wednesday, July 7, 2010

क्योंकि मैं मन हूँ.............

क्या तुझे कभी भी थकान नहीं होती........... मेरा प्रश्न.

क्यों.... मुझे क्यों थकान होगी? मेरी ये आदत तुम्ही ने तो डलवाई.

मैने...............?

हाँ....... तुमने. आश्चर्य क्यों?

नहीं............ मैने कैसे?

शुरू से ही तुमने मुझे स्वतंत्र छोड़ा है. 

तुम क्या कह रहे हो मेरी समझ मे नहीं आ रहा है.

(एक हँसी........) क्या समझ मे नहीं आ रहा है? तुम सब समझते हो........... लेकिन अनजान बन कर, तुम मुझे नहीं अपने आप को ही छलते  हो.

तुम पहेलियाँ मत बुझाओ.

मै..................

हाँ....... तुम कौन हो? कौन सी शक्तियों की बात कर रहे हो?

तुम अपने अंदर की शक्तियों से अनजान क्यों बने रहते हो??? तुमने अपने आप को दुनिया की गंदगी मै इस तरह लपेट रखा है की तुम अपने आप से ही दूर हो गए........... तुम जिस विशाल और विस्तृत के अंग हो, उसी से तुम ने अपने आप को दूर कर लिया. और फिर विलाप .......... किस छलावे मे जी रहे हो तुम .

तुम हो कौन...............?

मै कौन हूँ............... ? इस बात का जवाब मे अनगिनत बार दे चुका हूँ. तुमको सच्चाई  सुनने की आदत नहीं रही.

मुझे भ्रमित मत करो.....

मैं भ्रमित नहीं करता. मै भ्रम से निकालता हूँ. तुम खुद भ्रमित हो. तुम अपने आप को हटाओ और फिर देखो. भ्रम मे कौन है.

मै तो शाश्वत हूँ. अगर नियंत्रण करो तो मै तुम हूँ और बेलगाम छोड़ दो, तो मै तबाही भी हूँ. मै ऊर्जा हूँ. मेरा उचित उपयोग तुम्हारे उपर निर्भर है.

मेरे उपर.............. मुझे डराओ मत.

डर, साहस ये सब मेरी सत्ता मे नहीं होता. जिस चीज़ से तुम डरते हो, वही किसी का साहस का कारण होता है.

हाँ इतना जरूर कहूँगा की मुझको नियंत्रित करने की लिए ऋषियों ने हज़ारों साल की तपस्या  की, लेकिन कुछ ही कामयाब हुए.

क्योंकि मैं मन हूँ............. 

तूफ़ान........

वो तूफानों से बहुत परेशान है.
हमेशा तूफानों से घिरा रहता है. कभी बाहर का तूफ़ान और कभी अंदर. बाहर के तूफ़ान तो कमरे मै बैठकर सहन कर सकते हैं. लेकिन अंदर के तूफानों का कोई क्या करे. चंद जख्मों को छुपाना हो तो कोई बात नहीं, पट्टियां जिस्म पे बांधूं, तो कहाँ तक बांधू. और जब अंदर के तूफ़ान झंझावात मे बदलते हैं, तो कोई क्रांति ही जन्म लेती है.
क्यों भाई साहब ठीक कह रहा हूँ, न. सुंदर लाल का सवाल.

ठीक कह रहे हो. लेकिन इस बगावत का कारण?

मै तंग आ गया हूँ.

अरे........ पहले शांत हो जाओ. लो पानी पियो.

क्या भलाई का जमाना नही रहा? सुंदर लाल का दूसरा सवाल. 

नहीं ऐसा तो नहीं है.

तो फिर मेरे साथ ऐसा क्यों होता है? तीसरा सवाल.

देखो, मुझे नहीं पता की तुम क्यों इतने गुस्से में हो. लेकिन भलाई या बुराई. ये सब आजकल थोड़ी किताबो की बाते हो गयी हैं. आज कल इंसान को देखकर व्यहार किया जाता है. क्यों सबको एक जैसा समझते हो.

तो क्या करूँ?

व्यवहारिक बनो.

मतलब?

आशीष को जानते हो.

कौन वो सिन्हा साहब का लड़का?

हाँ.

क्या हुआ उसको?

कल मिला था. बिलकुल बिखरा हुआ, टूटा हुआ. तिनका तिनका समेटकर उसने अपने आप को सवारां था. और एक तूफ़ान उठा और तबाह कर गया. लेकिन हर तूफ़ान के बाद नयी सुबह भी आती है.

शमाँ को तो जानते होगे? वो एक नयी सुबह ले कर आई. और सिर्फ इतना कहा उसने

तकाजा है वक़्त की तूफा से जूझो , कहाँ तक चलोगे किनारे किनारे
भंवर से लड़ो, न तुम लहरों से खेलो,  कहाँ तक चलोगे किनारे किनारे



देखो सुंदर लाल, अगर जमाने की चिंता करोगे तो ये तुम्हे चैन से जीने नहीं देगा. अगर जिन्दगी मे आगे बढना है बस अपने लक्ष्य को सामने रखो और बढते चलो. दुनिया ने किसका राहे फ़ना मे दिया है साथ. जैसे जीते आये हो वैसे ही जियो, यहीं उन लोगों को तुम्हारा जवाब होगा.

कद्र करो उनकी जो हर तूफ़ान मे तुम्हारे साथ खडे होते है. किस्मत वाले होते हैं वो लोग.

मत देखो उनकी तरफ जो तूफ़ान बन कर तुम्हारी बर्बादी चाहते हैं, सलाम करो उनको जो तूफ़ान में अपना हाँथ तुम्हारी तरफ बढ़ा कर, तुमको उस से निकालते है. वो अल्लाह के बंदे होते हैं.   

मेरे मौला, मेरे उन दोस्तों को मेरा सलाम.

Saturday, July 3, 2010

निंदक नियरे राखिये

अब ब्लॉग लिखने का आनंद आ रहा है जब मेरे निंदक भाई और बहन मुझे तार तार करने पर उतारू हैं. स्वागत है. मै अपने निंदक दोस्तों से इतना जरूर कहना चाहूँगा की दुश्मनी जम  कर करो, मगर ये गुंजाइश रहे. जब हम दोस्त बने तो शर्मिंदा न हो. मै अपने निंदक भाई और बहनों को एक मूर्तिकार के रूप मे लेता हूँ, जैसे वो फ़ालतू पत्थर हटाकर मूर्ति बना लेता है. मेरे निंदक अभिवावक गण मेरी कमियों को हटाकर मुझमे से मूर्ति निकालना चाहते है.  
स्वागत है.
मै इतना जरूर कहना चाहूँगा की मे जो भी लिखता हूँ, किसी व्यक्ति विशेष पे नहीं लिखता हूँ. लेकिन अगर मेरे ब्लॉग से किसी को चोट लगी हो, तो मुझे माफ़ फरमा दें.

अगर आप अपनी किसी निजी दुश्मनी का बदला लेना चाहते हैं तो उसके लिए ब्लॉग जैसा PUBLIC PLATFORM उचित होगा , ये सोचियेगा.

मेरे बच्चों का जिक्र करके आप ने अपनी इज्ज़त मेरी नज़रों मे और भी बढ़ा दी. खुदा आप को सलामत रखे.