Friday, April 23, 2010

जून की भरी दोपहर---5

मंदिर से निकल कर मै स्कूल चल दिया. आज आम रास्ते से से हटकर खेतों की मेड़ो पे चलता हुआ. जहन मे ये ख्याल आता रहा की पंडित जी को राधिका का जिक्र करने की या जरूरत थी या उनको क्या पता है? रेलवे स्टेशन से उत्तर की तरफ जो पोस्ट ऑफिस है, वहां पर जो बड़ा सा पीपल का पेड़ है, वहां पर राधिका का घर था. 1999 से 2010  आ गया. ११ साल बीत गए. 1995 मे पहली  बार उसको देखा था.

लो चलते चलते स्कूल आ गया. गर्मी की छुट्टियां होने की वजह से काफी सन्नाटा है. एक आध टीचर्स इधर उधर दिख रहे हैं. मुझे देख कर आपस मे कुछ बातचीत भी कर रहे हैं.

ये प्रिंसिपल साहब का ऑफिस किधर होगा? मैने एक अध्यापक से पूंछा.

वो दाहिनी तरफ पहला कमरा है.

धन्यवाद , कह  के मै आगे चल दिया. क्या मैं अंदर आ सकता हूँ? मैने कमरे के बाहर से पूंछा.

प्रिंसिपल साहब कुछ अध्यापकों के साथ बैठ कर कुछ बातचीत कर रहे थे. उन्होंने  ने चश्मे के उपर से मुझे देखा और एकदम से बोले बाहर क्यों खडे हो?

मै अंदर गया और एक कुर्सी खींच कर बैठ गया. इससे पहले वो मेरा परिचय और अध्यापकों से करवाते, मैं खुद ही बोल पड़ा जी मेरा नाम अविनाश है और मै इनका पुराना शिष्य हूँ. प्रिंसिपल साहब मेरा मुँह देख रहे थे. थोड़ी देर मे उनका काम खत्म हो गया और कमरा खाली हो गया. मैने प्रिंसिपल साहब से अनुरोध किया और प्रार्थना की, कि पिता जी का सन्दर्भ दे कर मेरा परिचय न करवाएं . इससे लोगों कि उम्मीद बढ़ जाती हैं और वो मुझमे पिता जी को देखने लगते हैं और अविनाश मर जाता है. प्रिंसिपल साहब अवाक रह गए मेरा विश्लेषण सुनकर. स्कूल के लिए जो भी बन पड़ेगा वो मै करूंगा, और मुझे अच्छा लगेगा कि मे अविनाश बन कर ही वो काम करूँ. 

मैने प्रिंसिपल साहब रमेश कि नौकरी के लिए भी आग्रह किया तो बिना पूरी बात सूने ही  उन्होंने हाँ कह दिया और शुरू में ४५००/- तनख्वाह  भी बता दी. कह रहे थे कि विनय के जिले में 2nd आने के कारण आस पास के गाँवों से भी लोग अपने बच्चों का नाम लिखवाने  के लिए आ रहें है.

ये तो बड़ी खुशी की बात  है. इतना  न कह कर  मैं चलने ली लिया तैयार हुआ, तो एक चपरासी २ चाय और २ गरम समोसे ले कर अंदर घुसा. मैने प्रिंसिपल साहब से निवेदन किया की क्या हम सारे अध्यापकों के साथ चाय पी सकते हैं, अच्छा लगेगा. १० मिनट्स  के अंदर सारा स्टाफ कमरे मे था. विनय की  सफलता ने सारे अध्यापकों मे जोश सा भर दिया था.

चाय के बाद मैने चलने की इज़ाज़त मांगी और चल दिया. आज न जाने क्यों राधिका के घर जाने का मन हुआ. जाऊं या न जाऊं, इसी उहापोह मे सड़क पर चल रहा था. क्या मेरा जाना उचित होगा? जो गुजर गया, वो गुजर गया. उसके घर वाले भी मुझे जानते हैं.

बेटा अविनाश, राधिका की माँ ने तुमको बुलाया है. जाना पहचाना पंडित जी का स्वर कान से टकराया.

आप कहाँ से आ रहे है?  मैने पूंछा.

पोस्ट ऑफिस गया था. वहीं से आ रहा था.

रमेश की नौकरी की बात मैने पंडित जी को बता दी. और उन्होंने शाम को खाने का न्योता भी दे दिया. सारी     बातचीत के बाद जानबूझ कर याद दिलाते हुए बोले राधिका के माँ याद कर रही थी.

देखते हैं. अभी चलता हूँ. मैने ये कह के विदा ली........

क्यों भागते हो? मेरे दिल ने मझसे सवाल किया.

किस से? मेरा सवाल था.

राधिका के जिक्र से. दिल ने कहा.

मै  भागता नहीं हूँ. लेकिन ये जरूरी तो नहीं है की जो दिल मे हो उसको दिखाया ही जाये.

फूल खिलता है तो बताता नहीं है की वो खिल गया. खुशबू ही बता देती है.

मैं गाँव वापस किसी उद्देश्य से आया हूँ. ये भी कह सकते हो की राधिका से भाग कर.......... मै कमजोर हूँ. क्योंकि मै प्यार करता हूँ.

Thursday, April 22, 2010

जून की भरी दोपहर....... 4

मालिन माँ ने रात ११ बजे तक मुझे दुनियादारी की पाठ पढ़ाये और जब खुद उन्हे नींद आने लगी तो मुझसे कहा की अब तुम सो जाओ. सवेरे 5 बजे आँख खुली, एक कप चाय पी कर, थोड़ी देर खेतो मे घूम कर, वापस आया. फिर तैयार हो कर मंदिर जाने की तैयारी करी तो मालिन माँ ने चाय सामने रखते हुए कहा अब तो रात को ही वापस आओगे.

मै उनकी तरफ देख कर मुस्करा दिया.

आज दिन मे मुझे कमला के घर जाना है. कुछ पैसे दे दो. खाली हाँथ नहीं जाते. इस से पहले की वो मुझे दुनियादारी के और पाठ पढ़ाती ,मैने पचास रुपए उनके हाँथ पे रखे और मै चल दिया.

रास्ते मे थोड़ी सी मिठाई खरीदी और मंदिर पहुंचा तो रमेश बाहर ही मिला. एकदम से वो मेरे पैरों की तरफ झुका, मैने उसे रोका, ये क्या कर रहे हो. कहने लगा माफ़ करना भाईसाहब, बिलकुल उम्मीद नहीं थी, आप के यहाँ होने की, इसलिए कल बस अड्डे पर पहचान नहीं सका. उसको गले से लगाया और हाँथ मे मिठाई का डिब्बा रख कर पूंछा की पिता जी कहाँ है.

मै यहीं हूँ बेटा, आज आरती मे थोड़ी देर हो गयी. पंडित जी जवाब दिया.

थोड़ी देर मे हरी मटर- जीरे से छोंकी हुई, तला हुआ धान का चूड़ा, रति राम की दूकान के नुक्ती के लड्डू  और  कांच के गिलास मे गरम गरम चाय मेरे सामने  रखी रमेश ने. इतनी सारी चीजे देखकर मैने काहा पंडित जी आज दावत है क्या? अरे नहीं बेटा, तुम्हारी मालिन माँ सवेरे आकर बना गयी.

मालिन माँ????? मैने आश्रय से पूंछा. हाँ, सवेरे ७ बजे आई थी वो, कहने लगी की आज तुम चाय पीने यहाँ आओगे. तो जो तुमको नाश्ता पसंद है, वही बना दिया. गुस्सा कर रही थी की तुम खाने - पीने के मामले मे बहुत लापरवाह हो. मैं कुछ देर के लिए खामोश हो गया. सोच रहा था मालिन माँ के बारे मे. किस समय वो अवेरे उठी, यहाँ आ कर इतना सब बना गयी, और वापस आकर मेरे लिए चाय भी बना दी, और  कुछ जिक्र नहीं. ये माँ का ही दिल होगा.

और रमेश, अब आगे क्या करने का इरादा है? मैने रमेश से पूंछा.

भाईसाहब, या तो M.A. करूँ और एक मन सोचता है की यहीं गाँव मे कोई छोटा सा काम कर लूँ तो पिता जी की देखभाल भी हो जाएगी. आप क्या सोचते हैं? रमेश ने मुझसे पूंछा.

दोनों ही बाते ठीक हैं, मैने मन मे सोचा वैसे भी राय - मशविरा देने मै थोड़ा कंजूस हूँ. मै जो बोलूंगा, मानोगे. मैने पूंछा.

हाँ - हाँ क्यों नहीं. पंडित जी ने जवाब दिया. पंडित जी जिन्दगी रमेश की है, तो निर्णय लेने का अंतिम अधिकार भी तो उसी का होना चाहिए.

नहीं भाई, ऐसी कोई बात नहीं है. जो आप उचित समझे कहें.

स्कूल मे नौकरी करोगे? अचानक ही मेरा मुँह से निकल पड़ा.

आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. लगभग कूदते हुए रमेश ने जवाब दिया. सोचलो, स्कूल मे पैसे या  तनख्वाह बहुत अच्छी नहीं होगी. मुझे मंजूर है. रमेश ने दो मिनट सोच कर जवाब दिया.

बहुत अच्छा, फैसला है तुम्हारा. मेरे और पंडित जी के मुँह से एक साथ ही निकला.

नाश्ता ख़तम हो गया था. मै जरा गाँव घूम आऊं? रमेश का सवाल पंडित जी से था. बिलकुल जाओ. पंडित जी ने बड़े संतुष्ट मन से जवाब दिया.

रमेश चला गया. पंडित जी पोखरे मे हाँथ मुँह धो कर , वापस आकर बैठे.

बेटा, कल रात से मन थोड़ा परेशान था. क्यों? मेरा स्वाभाविक सा सवाल.

कल रात खाने के बाद, मैने रमेश से पूंछा था की बेटा अब आगे क्या सोचा है. तो उसने सिर्फ इतना कहा की , बापू, अभी सोचा नहीं है और तुम ने पांच मिनट मे ही सारी दुविधा दूर कर दी. पंडित जी ने कहा.

पंडित जी, मुश्किल किसी चीज़ मे नहीं होती. मुश्किल हमारे दिमाग मे होती है. जब हम किसी से कोई सवाल पुन्च्तेय हैं, तो जवाब भी हमारे दिमाग मे होता है. मुश्किल तब होती है, जब उसका जवाब , हमारे सोचे हुए जवाब से मेल नहीं खाता. अगर चीज़ मे मुश्किल होती, तो फिर वो सबके लिए मुश्किल होती. एवेरस्ट पे चढ़ना अगर मुश्किल होता तो सब के लिए होता. मगर कोई उस पर चढ़ कर उसपे झंडा गाड़ देता है, कोई उसपे चढ़ने के नाम से घबरा जाता  है.

पंडित जी मेरी बात से सहमत लगे. थोड़ी देर शान्ति बनी रही. अचानक पंडित जी मेरी तरफ पलटे और एकदम से पूंछा, अब राधिका कैसी है?

इस प्रशन की उम्मीद नहीं थी, तो मैने पूंछा कौन राधिका? पंडित जी मेरी तरफ देख कर बोले बेटा इन बूढी आँखों ने भी आदमी को पढ़ना सीखा है. तुम जितना अपने आप को ओरों के साथ गलाते हो, जितना हंसी मजाक करते हो, वो और जो तुम्हारी आंखे बोलती हैं वो, मेल नहीं खाता.

पंडित जी...... कहाँ से आप के दिमाग मे राधिका घूम गयी???

बेटा..... तुम्हारी आंखे आज भी गाँव मे उसको ढूंढती हैं. 1999 मे उसके पति की मौत के बाद तो वो गाँव आई ही नहीं. सुना है की दूसरी शादी हो गयी है.

अच्छा..... है न. खुश तो है न. मैने पूंछा.

राधिका की माँ, तुम्हारे बारे मैं पूंछ रही थी. कल मंदिर आई थी शाम को..........

पंडित, जी मैने प्रिंसिपल साहब से आने का वादा किया था, चलता हूँ. रमेश से कह दीजियेगा की अगर संभव हो तो स्कूल आ जाये.

Wednesday, April 21, 2010

जून की भरी दोपहर ...... 3

बस अड्डे पर  अचानक हुए शोर और हलचल  फल वालों की आवाज़, चाय वाले की आवाज़ ने बता दिया की बस अड्डे पर आ चुकी है. मै पंडित जी के साथ ही बस अड्डे तक आया. और फिर नमस्कार करके आगे चल दिया था. की पीछे से आवाज़ सुनाई पड़ी---- श्रीवास्तव जी नमस्कार.

मैं सोच मे पड़ गया की यहाँ पर इस तरह से संबोधन करने वाला कौन है. घूम के देखा तो एक वृद्ध सज्जन पंडित जी के साथ चले आ रहे थे. पंडित जी परिचय करवाया ,बेटा ये स्कूल के प्रिंसिपल साहब हैं. मैने एकदम से उनके पाँव छुए तो वो भी भाव विह्वल हो उठे. मुझे गले लगा कर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी. मैने मन मे सोचा की जो मेरे पिता जी कर के गए, उसका फल मै खा रहा हूँ. प्रिंसिपल साहब ने बताया की स्कूल की  क्लास १० का एक बच्चा जिले मे 2nd आया है. मैने कहा की ये तो आप लोगों की मेहनत और प्यार की नतीजा है. वो बोले बेटा ये पेड़ आप के पिता जी ने लगाया था. मेहनत तो उनकी है, जिस का फल हम को मिल रहा है. मैने कुछ पल के  लिए आकाश की तरफ देखा और मन मे पिता जी को याद करके सब कुछ उनको समपर्ण कर दिया. प्रिंसिपल साहब ने बड़े प्यार से एक आग्रह किया की कल मे स्कूल आऊं. मैने कहा की जरूर. प्रिंसिपल साहब चले गए पंडित जी वहीं रुके .

मैने पंडित जी से कहा की आप ठीक ही कह रहे थे. की बड़ा मुश्किल काम है, जो बीज पिता जी लगा गए हैं, उसको आगे बढ़ाना. क्योंकि लोगों की उम्मीदे बहुत है, और उन पर खरा उतरना आसान नहीं होगा. पंडित जी भी थोड़ी जल्दी मे थे बेटा इंतज़ार कर रहा था.

बाज़ार से मेरा घर थोड़ी दूर था, शाम भी हो रही थी इसलिए सोचा की रिक्शा लेने के बजाय , पैदल ही चलते हैं. पिता जी को याद करते करते एक शेर जहन मे आई---

तुम ये कैसे जुदा हो गए, हर तरफ , हर जगह हो गए
जाने वाले गए भी कहाँ, चाँद, सूरज, घटा हो गए.

ये कैसे रास्ते पर  ला के खड़ा कर दिया है मुझको? मैने पिता जी से सवाल किया. इतनी ऊँचे मापदंड बना कर गए आप, की उन  तक पहुंचना या उनको छु पाना भी मेरे लिए आसान नहीं है. और उपर से पंडितजी, प्रिंसिपल साहब, बसेसर, बच्चा सिंह और बाकी लोगों की उमीदे जो मुझ पर  टिकी हैं, क्या पूरा कर पाऊंगा. क्या मै वो बीज जो आप लगा के गए....... उसको बढ़ा पाऊंगा????

बेटा कल मंदिर मै नाशता हमारे साथ ही करना, बगल से पंडित जी रिक्शे मै गुजरे और आमंत्रण दे कर गए. मैने भी तुरंत स्वीकार कर लिया. रमेश को देखा....... बच्चा था..... जब मैने देखा था. नवयुवक बन गया है. घर पहुंचा. एक अजीब सा भारीपन था सर मे शायद इतनी बड़ी जिम्मेदारी कभी सर के उपर नहीं पड़ी थी. इतनी उमीदों का पहाड़ नहीं देखा था. कुछ डर सा लग रहा था. मै इज्ज़त न कमा पाऊं, कोई बात नहीं , लेकिन जो इज्ज़त का पहाड़ मेरे माता-पिता मेरे लिए खड़ा कर के गए हैं, उसमे कोई चोट न लगने पाये,यहीं है मेरा प्रयत्न.............

खाना क्या खाओगे ??? मालिन ने पूंछा.

कुछ नहीं,  आज भूंख नहीं है. एक कप चाय बना दो, और २ -४ बिस्कुट दे दो.
क्यों, आज भी खाना नहीं. मालिन ने  पूंछा.

मालिन ७० साल की एक विधवा महिला है, जो मेरी माता जी के समय भी मेरे घर मे काम कर चुकी हैं. और मुझ पर वो अपना पूरा हक जमाती हैं. मुझे भी अच्छा लगता है की कोई तो है, जो मुझे रोक-टोक सकता है. मै उन्हे मालिन माँ कह के संबोधित करता हूँ. .........

कल सवेरे नाश्ते पे पोखरे वाले मंदिर मे जाना है. मैने मालिन माँ को बताया.

जाओ जहाँ जाना है. खाने पीने का कुछ ठीक नहीं है. बस किताबे पढ़ लो. मालिन माँ ने अपना गुस्सा जताया.  माता  जी ठीक कहती थीं, की सब अपने काम से लग जायेंगे, तुमको देखने वाला कोई नहीं होगा.

मालिन माँ, तुम भी कहाँ सब की बात ले के बैठ गयीं. सब खुश हैं न, और क्या चाहिये.

तुम चुप ही  रहो, मालिन माँ ने फिर मुझे डांटा. सब को अपना फ़र्ज़ याद नहीं है क्या. तुम्हारे पिता जी देवता थे इस गाँव के लिए, उनका काम , उनकी इज्ज़त क्या ओरों  का फ़र्ज़ नहीं है? मालिन माँ ने मुझसे सवाल किया...... क्रमश:

Tuesday, April 20, 2010

खाली दिमाग , शैतान का घर

कहते हैं खाली दिमाग , शैतान का घर. मेरे पास कोई काम नहीं था, चुप चाप आँख बंद कर बैठा था तो अंदर से एक आवाज़ आई, कि ब्लॉग मे कहानी, कविता तो  लिखते हो, मेरी बात क्यों नहीं लिखते. मैने घबरा कर, आँख खोल कर इधर उधर देखा, कौन है भाई, किसकी बात मै नहीं लिखता. कोई नहीं दिखाई पड़ा तो आँख बंद कर फिर बैठ गया. फिर आवाज़ आई, किसको ढूंढ रहे थे, मुझको. मै कहीं दिखाई नहीं पड़ता. और अगर देखना चाहो तो मै हर जगह हूँ, हर चीज़ मे हूँ. लेकिन तुम ने अपने मन मे इतनी कठोर धारणाएं बनली हैं, जिनसे बाहर निकलना सजह नहीं है तुम्हारे लिए.

मेरे मन से आवाज़ आई, भाई कौन हो? उसने फिर जवाब दिया-- कब तक मुझको बाहर इधर ढूंढते रहोगे? मुझे लगा कि मै अपने आप से बात कर रहा हूँ. दोस्त लोग तो मुझे पागल कहते ही  हैं, लगता है वो सही हैं. तीसरी बार में आँख बंद करने से भी डरने लगा. तो फिर आवाज़  आई, मुझसे बचकर कहाँ तक भागोगे? कहीं भी नहीं भाग पाओगे. जिन्दगी भर तुम मुझे ढूंढते हो, आज मै बात कर रहा हूँ, तब तुम अपने आप को पागल समझ रहे हो.

मैने फिर अपने आप से ही पूंछा " अब तक कहाँ थे,जब मै परेशान था"? फिर आवाज़ आई, मै तो हमेशा से ही तुम्हारे साथ था, साथ हूँ और मै ही सिर्फ तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम मुझसे दूर भागते रहे और भागते रहते हो. देखो न, अभी मैने तुमसे बात करनी शुरू करी, तो तुम अपने आप को पागल करार देने लगे. मै तुमको कभी भी गलत करते हुए नहीं देख सकता, लेकिन क्या करूँ जब तुम मुझे अनसुना करके अपने आप को भाग्य विधाता  समझने लगे.

क्या तुम ईश्वर हो? मैने अपने आप से सवाल किया.

अगर मै, हाँ कहूँ तो तुम विश्वास कर लोगे. आवाज़ आई.

मेरे पास इस का जवाब नहीं है. मैने खुद को जवाब दिया.

जवाब है, मगर तुम्हारा अहंकार इतना है कि तुम वो जवाब मानने को तैयार नहीं हो.

अजीब बात है. ये मेरे अंदर क्या हो रहा है.

इतना डर क्यों रहे हो? फिर पूंछा.
क्रमश:

जून कि भरी दोपहर

भाईसाहब नमस्कार, एक जानी पहचानी आवाज़ कान मे पड़ी. मै अपने आँगन  मे पड़े छप्पर के नीचे कुछ सोया सा कुछ जगा सा, लेता हुआ था.

आँख खोल के देखा  तो मिश्र जी सामने खड़े थे. अरे हाँ.... मैने परिचय तो करवाया ही नहीं. जिन स्टेशन मास्टर का मैने जिक्र किया था उनका नाम है श्री सत्यानन्द मिश्रा. आइये मिश्रा जी, मैने उठते हुए कहा. मिश्रा जी मेरी खटिया पर ही बैठ गए और बिलकुल अपनेपन से, थाली मे रखे  हुए गुड़ के २ टुकडे मुँह मे डाल कर , लोटा भर पानी पे कर बोले गर्मी मे तो वाकई जल ही जीवन है.

कहाँ से आ रहे हैं, आज क्या छुट्टी पर है. मैने पूंछा. अरे नहीं भाई. खाना खा कर स्टेशन जा रहा था, सोचा आप से मिलता चलूँ. इस वक्त तो न कोई सवारी गाडी का वक़्त है न मालगाड़ी का. मैने कहा, मिश्रा जी कितना आराम है. मिश्रा जी गहरी सांस ले कर बोले, अब आराम का वक़्त ख़त्म होता सा लगता है. अरे ऐसा क्या हो गया? मै पूंछ बैठा. अरे भाई बनारस ट्रान्सफर हो गया है. अगले महीने कि पहली तारीख को ज्वाइन करना है. मिश्रा जी कुछ थके हुई आवाज़ मे बोले.

तो इसमे परेशान होने कि क्या बात है? अरे.... क्या जिन्दगी भर गाँव मे ही रहना है? मैने पूंछा.

भाई डरता हूँ, शहर से. अरे नहीं मिश्रा जी. शहर इतना भी डरावना नहीं होता. हाँ थोड़ा सम्हाल के रहना पड़ता है.
यही तो मुझसे नहीं हो पता. मिश्र जी ने जवाब दिया. हम तो जीते है तो जीते हैं. गिन - गिन के जिन्दगी हमसे न जी जायेगी.

मै समझ रहा था, मिश्रा जी कि पीड़ा और उनका डर. मिश्र जी-- गाँव कि सादगी , गाँव मे ठीक थी. शहर मे यूँ जियोगे तो मर जाओगे. मैने मिश्रा जी को उनके बच्चो का वास्ता देकर समझाया कि भाई उनको पढ़ाई - लिखाई के लिए , आगे बढने के लिया क्या शहर नहीं भेजोगे. आप कि तो जिन्दगी कट गयी. भाई शहर मे भी अच्छे लोग रहते हैं. वो अलग बात है, कि कुछ समय के बाद वो गाँव वापस लौटने के लिए तरसते  हैं.

अच्छा भाई अभी चलता हूँ, सवारी गाडी आने का वक़्त हो चला है. मै भी मिश्रा जी के साथ, घर बंद करके चल पड़ा , आज पोखरे पर पहुँचने मे देर हो गयी थी.

पंडित जी प्रणाम...... मैने दूर से ही उन्हे देखा कर कहा. वो बोले-- आज कहाँ रह गए बेटा. मैं तो खाना बना कर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ. उनका ये वाक्य सुनकर मे चोंक गया. अभी ४ दिन से ही तो उनसे बोलचाल शुरू हुई है, और इतना अपनापन. ओह...... ये तो  गाँव के हैं. दिल से आवाज़ आई. शहर के होते तो पानी मांगने पर भी, शक कि निगाह से देखते.

हाँ... पंडित जी, कुछ आँख लग गयी, फिर मिश्रा जी आ गए थे. फिर सोचा कि बाज़ार से कुछ खरबूजे लेता चलूँ. शाम को मंदिर मे बच्चो के साथ मिल कर खायेंगे. पंडित जी इतने खुश हो गए... कि न जाने मैने कौन सी बात कह दी.

खाना हुआ, फिर वहीं बरगद के नीचे चटाई बिछा कर वहीं लेट गया. पंडित जी वहीं बगल मे खटिया डाल कर आराम करने लगे. कितने साल बाद गाँव आये हो? अचानक पंडित जी का सवाल मेरे कान मे पड़ा.

करीब १८ साल हो गए. कितने दिनों के लिए आये हो....... दूसरा सवाल पंडित जी का.
यहीं बसने कि सोच रहा हूँ. माँ बाप तो नहीं रहे, उन्होने जो सम्बन्ध बनाये थे, उनको निभाने कि सोच रहा हूँ.

बहुत कठिन बात कर रहे हो. बेटा. आप को पता है, आप के पिता जी इस गाँव के लिए क्या थे......... वो जो कचहरी के पीछे स्कूल है, उसमे आज भी तुम्हारे पिता जी नाम लिखा हुआ है. तुम्हारे पिता जी ने ही वो स्कूल शुरू लिया था. ५ बच्चे थे. घर घर घूम कर बच्चे इकठे किये थे उन्होने. और शुरू मे तो स्लेट और बत्ती भी खुद ही देते थे.  बसेसर से पूंछो  तो वो आज भी पिता जी का नाम किसी देवता कि तरह लेता है. तुमको पता है क्यों.......... उसकी अपंग बेटी  को मुफ्त मे घर जा कर पढ़ाते  थे, और वो मुन्नी , आज  शहर मे किसी बड़े ऑफिस मे साहब है.

मैने कहा पंडित जी...... आज मै उसी बरगद कि छाँव मे ही हूँ. कोशिश तो ये है कि जो काम वो जहाँ छोड़ कर गए , में वहीं से उस काम को शुरू करूँ......... आगे " होइए वही जो राम रची राखा" . तुम ठीक कह रहे हो बेटा...... आगे बढ़ो...... देखो जो बीज वो बो गएँ हैं, वो दरख़्त बने, ये जिम्मेदारी  तुम्हारी है......

वो देखो दूर जो धुल का गुबार देख रहे हो, ४.३० वाली बस आ रही है. आज रमेश आ रहा है. उसने B.A. का इम्तेहान पास कर लिया है.

रमेश पंडित जा का इकलोता बेटा है. जिसकी माँ के मृत्यु  उसके बचपन मे ही हो गयी थी. अच्छा....... तभी आज पंडित जी ने चावल, के साथ तोरे कि सब्जी भी बनाई थी और साथ मे गन्ने का ठंडा रस भी.......  क्रमश:


 

Monday, April 19, 2010

जून की भरी दोपहर

जून की भरी दोपहर, सारा गाँव सूना पड़ा....... ऐसा लगता है की भगवान् सूरज ने भी तय कर लिया है की पहली किरण के साथ ही आग बरसाएंगे. 

लेकिन मुझे गाँव की दोपहर बहुत पसंद हैं. दोपहर होते होते जब सब लोग घर के अंदर बंद हो जाते हैं, मैं एक झोले मे भुना हुआ लैया- चना, गुड़, हाँथ मे एक kitaab  और एक पानी की बोतल ले कर गाँव के भ्रमण पे निकल पड़ता हूँ. सर के उपर एक गमछा, बस इतना बहुत है. मेरे गाँव का रेलवे स्टेशन जहाँ सिर्फ दो रेल गाड़ियां ही आती है, मेरी पसंदीद जगह है. छोटा सा गाँव है और मेरे गाँव मे सुरक्षा कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, इसलिए रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर साहब से मेरी मित्रता हो गयी है. स्टेशन पर एक चाय की दूकान है, जब ट्रेन आती है तो चाय वाला....... गरंम चाय ...... की आवाज़ सुनाई देती है......फिर दूर तक सुनसान. स्टेशन पे दो प्लेटफोर्म  हैं १ और 2. प्लेटफोर्म २ के पीछे , मुश्किल से १ किलोमीटर दूर कलि जी का एक छोटा सा मंदिर है , उसके बगल मे एक बड़ा सा बरगद का पेड़ है, और मंदिर के सामने एक बड़ा सा तालाब है, जिसको काली जी का पोखरा कहते हैं.

बरगद के पेड़ की बड़ी बड़ी शाखाएं , पोखरे के उपर आती हैं और वही बरगद का पेड़ मेरी पूरे दिन की आराम करने की जगह है. गाँव के छोटे बच्चे, बरगद के पेड़ के उपर चढ़ जाते हैं........ और छपाक से पानी मे कूद पड़ते हैं. इनको कोई डर नहीं , इनको कोई चिंता नहीं, ये जिन्दगी जीते है. अभी यहाँ पोखरे मे नहाने के बाद, खेत पर काम कर रहे , अपने बाबू के लिए कपड़े मे लिपटी हुई मोटी मोटी गरम रोटियाँ, एक प्याज, ढेर सारा सा गुड़ और एक लोटा पानी लेकर जायेंगे और फिर खेत मे खेलेंगे.

मंदिर के पुजारी , रोज़ ही मुझे देखते थे, शुरू शुरू मे तो शक की निगाह से देखते थे , लेकिन कुछ दिन देखने के बाद, कि मुझसे उनको कोई नुक्सान नहीं है, मुझसे थोड़ी थोड़ी बात भी करने लगे .  दिन वो अपने लिए चावल उबालते  है और कोई सब्जी. पिछले २-४ दिनों से वो मुझे भी एक अलमुनियम कि प्लेट मे थोड़ा चावल और सब्जी दे देते हैं. उनसे मेरी धर्म और आध्य्तम को लेकर काफी बातचीत होती है. प्रेमी  जीव हैं. जब मैने उनसे शहर के बारे मैं और शहर के लोगों के बारे मैं बताया, तो वो चोंक  से गए. बोले नहीं बेटा ऐसे नहीं होते हैं  लोग. मैने पूंछा कि आप शहर कब से नहीं गए हो? तो वो बोले कभी नहीं. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. मैने कहा पंडित जी सबसे अमीर आदमी आप ही हो. उन्होने पूंछा क्यों? मेरे पास तो १०० रुपए भी नहीं हैं. मैने कहा, पंडित जी, मेरे हिसाब से , अमीर वो नहीं, जिसके पास बहुत धन हो, बल्कि अमीर वो है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं हो". पंडित जी, मेरी व्याख्या सुनकर मुस्करा के बोले तुम पढे  लिखे हो, मै तुम से जिरह नहीं कर सकता, लेकिन जो तुम कह रहे हो, शायद ठीक है.

मंदिर से बायीं तरफ थोड़ी दूर पर गाँव का बस अड्डा है. पूरे दिन मे ३ बसे आती हैं.  वो आती हैं और धुल उड़ाती हुई चली जाती हैं. शाम होने को है, पंडित जी ने मुझसे पूंछा तुम रहते कहाँ हो? मैने कहा मेन रोड पर बच्चा सिंह के मकान मे. मंदिर मे लोगों के आने का क्रम बढने लगा, शाम कि आरती का वक़्त हो रहा था. थोड़ी देर मे, लोग पोखरें मे हाँथ , मुँह धोकर, मंदिर में अगरबत्ती और धुप जलाने जागे. और कुछ ही  देर मे सारा वातवरण, राम-मय   हो गया. गाँव के मंदिर मे, भजन, कि आवाज़ आने लगी.

मेरा भी जाने का वक़्त हो रहा था...... शाम को ८ बजे के बाद मे गाँव के बच्चो को अपने घर मे पढ़ाता था.......उनके आने का वक़्त हो चला था. बछो के लिए बाज़ार से कुछ फल, कुछ पेन्सिल्स, लेनी थी......
पंडित जी से आज्ञा ली, और चल दिया...... रास्ते मे स्टेशन मास्टर से मुलाक़ात हुई, बोले भाई मेरा ट्रान्सफर शहर मे हो गया है. कुछ शहर और शहर के लोगों के बारे में बताओ.
मैने कहा---- वहां के लोगों कि खासियत है सबसे बड़ी, हबीब लगते हैं लेकिन रकीब होते हैं.

वो बोले भाई विस्तार से समझाओ, मैने कहा, भाई साहब, कल आता हूँ, फिर बात करेंगे.

क्रमश:  

Friday, April 16, 2010

जिस दिन तुम शहर से थक जाओ, मुझे आवाज़ दे लेना.............

मेरा गाँव, रानीखेत से थोड़ा पहले पड़ता है. घर के ठीक पीछे एक पहाड़ी नदी बहती है. और उसके दोनों तरफ खेत हैं. जहाँ मैने अपना बचपन गुजारा है. रानीखेत हिमालय के गोद मे पड़ता है.


फिर मैने गाँव जाने का मन बना ही लिया. और करता भी तो क्या. कहाँ तक अपने आप  को रोज़ मारता.  अपनी जमीन से हटकर, कोई कितने दिन खुश रह सकता है........... जिन्दगी ने इतनी उलझाव , इतने छलावे दिए, कि मै  पाने आप को ही खो बैठा. ..... शहर कि तड़क - भड़क म मुझे ज्यादा दिन बाँध कर नहीं रख सकती. 
 
मेरा दिल अंदर से कचोटता है, वापस जाने के लिए. मुझे हिमालय बुलाता है. मुझे चीड़ के जंगल आवाज़ देते हैं. मुझे बुरांस के लाल चटकीले फूल याद आते हैं. गाँव कि वो बूढी माँ याद आती है, जो पीठ पे लकड़ी का गट्ठर उठा, एक कप चाय के लिए मेरे घर आती थी. जब मेरे गाँव से कोई बस गुजरती थी , तो गाँव के छोटे छोटे बच्चों के लिए , शैतानी करने का बहाना बन जाती थी. मेरे घर के पास से ही पहाड़ का ठंडा पानी गिरता है. और उसी के पास सुंदर लाल की छोटी से चाय की दूकान है. पीतल के छोटे छोटे चमकते हुए गिलास और प्याज,गोभी और आलू की गरम गरम पकोडिया किसी पकवान से कम नहीं होती थी. और जब किसी टूरिस्ट की कार या बस आ कर रूकती थी तो सुंदर लाल ऐसे भाग भाग उनका स्वागत करता था की जैसे भगवान् आ गए हो. इसलिए नहीं की वो उसके ग्राहक हैं, बल्कि इसलिए की दूर से आ रही है, थके होंगे.

पहाड़ो पर दूर - दूर  गाँव बसे होते हैं, और ज्यों ज्यों शाम घिरती है, घरों में लाइट जलती है तो ऐसा लगता है जैसे तारे जमीन पर उतर आयें हों. मेरे घर के पास वाले घर मे कोई जलसा है. अरे हाँ........ उनका बड़ा लड़का जो फ़ौज मे है, आज सुबह ही तो घर आया है. माँ ने नयी धोती पहनी  है, और उसके पिता जी बंद गले का कोट पहन कर कितना इतरा रहे है और इतराये भी क्यों न. बेटे ने माँ को नयी धोती दे है और पिता को नया बंद गले का कोट. छोटी बहन के लिए वो गुड्डे - गुडिया का सेट भी लाया है.   ढोलक कि थाप, और गाने कि आवाज़ सुनाई पड़ रही है.  घर मे काफी भीड़ है, मेहमानों की. इसी मौके पे तो पास वाले घर की लड़की, अपने प्रेमी से दबी जबान मे कुछ कह रही है. उसमे कुछ बनावट नहीं है.लड़का कुछ कह रहा है,शायद  लड़की को, पसंद नहीं आ रहा है. तभी तो उसके चेहरे का रंग कुछ शर्म और कुछ डर ओढे हुए है. मुझे याद आ रहा है बिहारी का वो दोहा - " कहत ,  नटत, रिझात , खिझात, मिळत, खिलात लजियात. भरे भवन मे करत हैं, नैनन ही सो बात.  कितनी सचाई है उस के शर्माने मे.

मेरे गाँव मे लोग छोटे होते है , लेकिन इंसान बहुत बड़े होते हैं. अगर किसी के घर कोई जरूरत पड़ जाये तो सारा गाँव इकठा हो जाता है, जैसे उसका अपना ही घर हो. मेरे गाँव मे राशन की दूकान वाले है ,उनका नाम है इसहाक मियां. पचास से उपर ही होंगे, लेकिन अगर आप उनको बचों के साथ देख ले , तो जान नहीं पायेंगे , की बच्चा कौन है. और जब शाम की अज़ान के बाद , वो पंचायत वाले पेड़ के नीचे बैठते हैं, तो कुरआन और भगवद गीता के कहानियां  सुनाते हैं, की सारा गाँव वहां आकर बैठ जाता है. तुम भी तो वहां आ कर बैठ जाती थी.

सुंदर लाल ने कल एक रेडियो खरीदा और अपनी दूकान पे बजाया तो गाँव मे फिर एक मिठाई खाने का बहाना मिल गया. एक फ़िल्मी गाने के उपर बच्चे खूब  नाचे, कितने सीधे होते है. सुंदर लाल का रेडियो , गाँव वालों की अमानत बन गया. मै गाँव जा कर खुद को जीना चाहता हूँ. तुम भी तो चलोगी मेरे साथ. चलोगी न...... मुझे अपने गाँव के वो छोटे छोटे बच्चे , जो ढीली से पैंट, लम्बी से कमीज़,उपर से लम्बा सा स्वेटर पहन कर, अपने टमाटर जैसी लाल लाल गालो पे निस्वार्थ से हंसी लिए दिन भर इधर उधर घूमा करते हैं. कभी सुंदर लाल की दूकान पे मजमा तो कभी इसहाक मिया की दूकान मे जलवा. यही तो मेरा गाँव.

जिस दिन तुम शहर से थक जाओ, मुझे आवाज़ दे लेना.............

Thursday, April 15, 2010

कोई थोड़ा पानी डाल देगा क्या.......

कुछ पौधे रेगिस्तान मे भी होते हैं. उपर से सूखे, कांटो को लिए हुए, लेकिन जमीन के भीतर जडें बहुत कोमल और बहुत गहरी होती हैं, और धरती का सीना चीरकर पानी लेती हैं ताकि बाहर पौधे का सूखापन बना रहे. यही सूखापन उसको ओरों से अलग कर देती है. लेकिन धरती के अंदर उसकी जड़े इतनी ताकत उस पौधे को दे देती है, की पौधा,बाहर चलने वाले हर तूफ़ान को झेल जाता है, बर्दाशत कर लेता है, फिर भी सुखा ही सही, लेकिन खड़ा रहता है. उसको सुखा और बेकार समझ कर जानवर भी उसको खाने से इनकार कर देते है, और वो अपने अस्तित्व को , अपने सूखेपन के सहारे ही  सही, लेकिन बचा लेता है. ये उस पौधे  की नियति है.

इस सुखे हुए पौधे के लिए जिन्दा रहने के लिए किसी की प्रार्थना और किसी का अथाह प्यार भी था, ये उस पौधे को पता ही नहीं था. वो तो अपने होने न होने के एहसास से भी परे था. आज वो पौधा पेड़ बन चला, लेकिन है आज भी रेगिस्तान मे ही. उसके चारो तरफ जिन्दगी हर रंग मे नाचती है, लेकिन वो .............
दुनिया मे हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुजरा हूँ, खरीददार नहीं हूँ.

जब तुम नहीं थे , तो ये मेरे कांटे  भी, मुझे अच्छे लगते थे, क्योंकि ये तो भगवान् ने ही मुझे दिए थे, वरदान या अभिशाप... वो  ही जाने. अब कभी कभी मन करता है, की तुमको कुछ दूँ, लेकिन मेरे अस्तित्व मे कांटे ही कांटे है. जो मेरी सच्चाई है. जो फूल तुम देख रहे हो, जरा करीब से देखो, इनमे खुशबू नहीं मिलेगी तुमको. ये तो जमाने को बहलाने की लिए मैने खुद अपने उपर सजा लिए हैं.  वो अपने आप मे कभी नहीं रहता, क्योंकि उसको ये नहीं पसंद है, की कोई उसके अन्तस्तल तक पहुँच पाये, कोई उसको समझ पाये, इसलिए वो उपर से कई किरदार जीता है.

अब वो पेड़ अपने आप को कोसता भी है, और भगवान् से शिकायत भी करता है की पेड़ ही बनाना था, तो ऐसा बनाया होता की चार लोगों को छाया ही मिल जाती , कुछ पत्थर खा कर, कुछ बच्चो को कुछ फल ही मिल जाते.  रेगिस्तान में बहुत सुखा होता जमीन इतनी गरम होती है, की सब कुछ जला देती है. अरमान, सपने, प्यार, सब है मेरे पास, लेकिन सब जला हुआ है.

कोई थोड़ा पानी डाल देगा क्या.......

Friday, April 9, 2010

प्यार का पहला ख़त लिखने मे, वक़्त तो लगता है,

प्यार का पहला ख़त लिखने मे, वक़्त तो लगता है,
नए परिंदे को उडने में, वक़्त तो लगता है.
जिस्म की बात नहीं  थी, उनके दिल तक जाना था,
लम्बी दूरी तय करने मे, वक़्त तो लगता है.
हमने इलाजे जख्मे दिल तो ढूंढ लिया लेकिन,
गहरे जख्मो को भरने मे, वक़्त तो लगता है.
गाँठ अगर लग जाये तो फिर, रिश्तें हो या डोरी,
लाख करो कोशिश , खुलने मे वक़्त तो लगता है.

------हस्ती

Thursday, April 8, 2010

चलो.. दिल से खेलें....

चलो.. दिल से खेलें....... अरे अपने नहीं , दूसरों के. पागल ...... तू भी न सीधी की सीधी रही. कैकयी बन, मंथरा बन.

इस खेल का न, मज़ा ही अलग है. हाँ री सखी हाँ. तू ठीक कह रही है. ये एक ऐसा खिलौना है जो मुफ्त में  मिलता है. और इसके अंदर काफी feelings, emotions, sentiments stuffed होते हैं. और एक - एक करके उनको तोड़ने का मज़ा, हाय अल्लाह..... मैं क्या बताऊँ.

और सुन सखी, इस खिलोने से खेलने मे हाँथ भी गंदे नहीं होते. क्योंकि ये दिखाई नहीं देता और रही बात अंतरात्मा या concious की उसकी आजकल के बाज़ार मे कोई कीमत नहीं है. हाँ, कुछ करना भी नहीं पड़ता है इसको तोड़ने में. सखी....... feelings, sentiments , emotions को पेरों तले रोंदने का मजा ............ न पूंछ सखी न पूंछ. और इस खेल का मज़ा तब और भी बढ़ जाता है, जब khiloney  का मालिक तुझ पर पूरी तरीके  से यकीन करने लगे. और जब तुझे लगे की अब तुने उसका विश्वास जीत लिया है, तभी वो समय होता है, सखी जब उसको तोड़ने का पूरा मज़ा आता है.

इस खेल को खेलने मे थोड़ी सावधानियां भी बरतनी पड़ती हैं. जैसे:- तुझे ये पूरा ध्यान रखना पड़ेगा की तेरा दिल उसके दिल से न मिले. हमेशा अपना दिमाग इस्तेमाल कर, सखी. और समय - समय पर ये ध्यान रख कि वो तुझ पर कितना भरोसा करता है. उसका भरोसा जीत, विश्वास जीत, जब तुझे लगे कि वो पूरी तरीके से तेरी बातों पे भरोसा करता है या करने लगा है........... बस यही मौका है जब उसको तोड़ और उससे मिलने वाले असीम सुख ka अनुभव कर.

अगर दिल , जिससे तुझे खेलना है, वो emotional है , तो तेरा काम जल्दी हो सकता है. क्योंकि ये जो emotional लोग होते हैं, ये बेवक़ूफ़ होते हैं, इनको backward class मे गिना जाता है. और ये दूसरे पे भरोसा करने कि गलती आमतोर पर और जल्दी करता है. . इसलिए  emotional शिकार ढूंढना...... सखी.

Thursday, April 1, 2010

63 साल हो गए...........

63 साल हो गए........... या हो जाएंगे. हमको आज़ाद हुए.

 कहते हैं 12  साल मे तो घूरे के दिन भी, फिर जाते हैं. हमको तो 63 साल हो गए. अब भी कितने परिवार हैं, जिनको दो टाइम का खाना नसीब नहीं हो पाता, कितने घर हैं, जहाँ बच्चे स्कूल नहीं जाते. कितने गाँव हैं जहाँ रौशनी नहीं है, कितने गावं है जहाँ पीने का पानी नसीब नहीं है.

63 साल हो गए........... या हो जाएंगे. हमको आज़ाद हुए.

हम चाँद पे चले गए, अन्तरिक्ष मे घूम आये, इंसान के बुनियादी जरूरतें रोटी , कपड़ा और मकान. इसको भूल गए. सरकार आई और सरकार गयी. गाँव मे अन्धेरा था, गाँव मे अन्धेरा है. गाँव प्यासे थे, गाँव प्यासे है. लोग इलाज के अभाव मे मरते थे, मर रहे है. स्कूल तब भी कम थे , आज भी कम हैं.


63 साल हो गए........... या हो जाएंगे. हमको आज़ाद हुए.

लोग तब भी बहादुर थे, आज भी बहादुर हैं. तब जान देने मे नहीं झिझकते थे, अब जान लेने मे नहीं  झिझकते. तब इंसान ज्यादा थे, अब आदमी ज्यादा हैं. तब प्यासे को पानी पिलाना धर्म था, अब पानी पिलाना business है. तब गरीब आदमी रोटी और प्याज  खा कर काम चला लेता था, आज प्याज और आटा गरीबों की रेखा से उपर है. सरकार  काम बहुत कर रही है.

63 साल हो गए........... या हो जाएंगे. हमको आज़ाद हुए.

न्याय व्यस्था तब भी थी, न्याय व्यस्था आज भी है. वो अलग बात है कि  तब के मुकदमो का फैसला आज तक नहीं हो पाया. तब अगर किसी के घर पे छापा पड़ जाये, तो शर्म कि बात थी, आज गर्व कि बात है. तब दिल बोलते थे, अंतरात्मा  बोलती थी, आज पैसा बोलता है.

63 साल हो गए........... या हो जाएंगे. हमको आज़ाद हुए, 63 साल .