तुम चले गए.... गाँव सूना हो गया. मंदिर सूना हो गया.
पंडित बाबा की तबीयत ठीक नहीं रहती है.... अंजलि परेशान है.
दीदी.... क्या फ़कीर, फिर आयेंगे? अंजलि का प्रशन.
मुझसे क्यों पूंछ रही है......?
नहीं दीदी..... बाबा की तबीयत ठीक नहीं रह रही है.....बाबा फ़कीर के बारे में पूंछते रहते हैं.
मै क्या बताऊँ.... बिटिया. पता नहीं कहाँ होंगे.
फिर .... क्या बाबा ठीक नहीं होंगे..... उसका भोला सा सवाल
नहीं ऐसी बात तो नहीं हैं....... मै वैद्य जी को लेकर मंदिर आती हूँ , तू चल.
ठीक है दीदी. वो चली गयी.
मैं बैठी बैठी अपने आप से बात करने लगी...... क्या जरुरत थी तुमको यहाँ आने की. सब अच्छा तो था यहाँ पर. गुस्सा आता है तुम पर. लेकिन तुम सब छोड़ कैसे बैठे......
अरे..... पागल हो गयी है क्या...... किस से बात कर रही है. अरे... हाँ मुझे तो वैद्य जी को लेकर मंदिर जाना है.
अंजलि...... देख वैद्य जी आये हैं.
आओ दीदी..... वैद्य जी आप फ़कीर को ले आओगे?
बाबा--- ठीक हो जाएंगे.... बिटिया.... पंडित जी कलाई पकड़ कर वैद्य जी ने कहा.
सर्दी लग गयी है...... मौसम भी तो करवट ले रहा है. जरा अदरक और तुलसी डालकर चाय पिला दे.... बिटिया.
अच्छा.... चलता हूँ. पंडित जी आराम कर लो. उम्र का भी ख्याल कर लो.
हाँ... हाँ वैद्य जी . अच्छा... राम राम.
आओ बिटिया ... तुम कब आयी?
दीदी ही तो वैद्य जी को लेकर आयी थीं.
अच्छा..... कैसी हो बेटी?
ठीक हूँ, बाबा.
बिटिया..... कभी कभी सोचता हूँ... तो बड़ा अजीब सा लगता है...
क्या बाबा...
यही की वो फ़कीर यहाँ २ महीने रहा और किसी को उसका नाम ही नहीं पता. सब फ़कीर के ही नाम से उसको जानते हैं.....
मै खामोश..... क्या बोलूं..... किस घर के हैं....इनके पिता जी कौन थे.....सब तो जानती हूँ.
लेकिन वो और फ़कीर....... ये क्या गोरख धंधा है..... किस से पता करूँ..... कैसे पता करूँ.......
अंजलि...... खाना मै बना दूंगी.... घर आ के ले जाना.
अरे.... इतना तकलीफ क्यों कर रही हो बेटी.....
बेटी भी बोलते हो..... और ऐसी बात भी करते हो..... तुम भी एक गोरख धंधा हो बाबा.
मैं भी...... क्या कोई और भी है..... पंडित जी चाय का गिलास नीचे रखते हुए बोले.
सब हंसने लगे.... अच्छा राम राम.... अंजलि.... एक घंटे बाद खाना ले जाना.
जी दीदी....
मै वापस घर के रास्ते.....फ़कीर... फ़कीर....आखिर ऐसा हुआ क्या.... जो ये सब छोड़-छाड़ बैठे.... ये तो नौकरी करते थे.... पिता जी भी सरकारी विभाग मै थे, माँ भी इनकी नौकरी करती थें.....फिर..... हुआ क्या.... कहाँ हो फ़कीर....
छि.छि.. मै क्यों फ़कीर .. फ़कीर कहने लगी... जब मै नाम जानती हूँ.
लेकिन बहुत संतोष है दिल को..... तपस्वनी को भूले नहीं. कैसी विडम्बना है ..... मै उनकी तपस्वनी हूँ.... वो कह नहीं सकते ..... वो फ़कीर क्यों और कौन है.... मै कह नहीं सकती.....
मरुँ तो किसी एक चेहरे मै रंग भर जाऊं,
नदीम काश मै, एक ये काम कर जाऊं.
यही कहा था ना उन्होंने..... और कितना रंग भरोगे.....
1 comment:
ओह! ये तो कल ही लग गया था कि वो ही फ़कीर की तपस्विनी है अब तो आगे का इंतज़ार है।
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