Thursday, October 28, 2010

एक छोटी सी मुलाक़ात

तुम साथ नहीं  हो..... लेकिन फिर भी दूर नहीं लगते हो. 

तुम शरीर की परिधि से बाहर निकल गए , लेकिन दिल आज भी तुम्हारी यादों से सजा हुआ है.... जैसे किसी दुल्हन का हाँथ मेहंदियों से रचा हुआ......

तुम आये तो लगा जैसे गाँव आबाद हो गया.... हर तरफ तुम्हारी चर्चा  , तुम्हारा ज़िक्र.... अच्छा लगता था. लोगों से तुम्हारी बाते सुनना........ अब मन करता है कि....

या तो तेरा ज़िक्र करे हर शख्स, या कोई हमसे गुफ्तगू  ना करे.

घर पर भी सब लोग पूंछते रहते हैं कि तबीयत तो ठीक है, आज कल बहुत खामोश रहती हो..

क्या जवाब दूँ.....? बोलो तो.

आजकल यहाँ बरसात का मौसम है..... लेकिन अब वो बारिश नहीं होती......जो सालों पहले हुआ करती थी.... जिसकी ठंडी बूंदे जब बदन पर पड़ती थी तो एक आग सी  पैदा करती थीं..... नहीं होती अब वो बारिश..... याद है जब मे एक रोज़ कॉलेज मे रुकी थी बारिश कि वजह से, और तुम एक छाता ले कर मुझे  लेने आये थे,   चलते चलते जब मेरा हाँथ, तुम्हारे हाँथ से छु गया था, तो तुमने अपने आप को ऐसे सिकोड़ लिए जैसे कछुआ अपने आप कि सिकोड़ ले...... बहुत अच्छा लगा था. पहले मै समझी थी कि पापा ने तुमको मुझे लेने भेजा है, लेकिन बाद मे पता चला कि तुम खुद मुझे लेने आये , क्योंकि तुमको पता था, कि मेरे पास छाता नहीं है.... कितना ध्यान रहता था तुमको मेरा....लेकिन मै वो बात समझ नहीं पाई.......

कल तुमसे बात हुई, मुलाकात हुई तो ऐसा लगा जैसे रेगिस्तान मे बारिश हुई ........  एक तूफ़ान सा  मेरे अंदर और एक शान्ति तुम्हारे अंदर.... देखी मैने. कितने सुखी हो तुम....... और मैं.... जैसे सब अपने हों, जैसे कोई भी अपना नहीं.... आज भी वक़्त गुजर गया......किसी कि तलाश जारी है...... कोई अपना, बिलकुल अपना. तुम समझ तो रहे हो....ना.

लेकिन मुझे गुस्सा भी है तुम्हारे उपर.....बहुत गुस्सा.  तुमने कभी भी अपने दिल कि बात नहीं कही....कितने संकोची हो तुम....... और लोग तुमको पता नहीं क्या क्या कहते हैं...... कब तक और क्यों सहन करते हो....? इतना अपमान.... हाँ.... अपमान... लोग क्या क्या नहीं कहते हैं...... लेकिन भगवान् जाने तुम किस मिट्टी के बनी हो...?

याद है....मेरे घर के बाहर जो गुलमोहर का पेड़ था......तपती दोपहर मे तुम मुझे वहाँ बैठ कर पढाया करते थे.... उस गुलमोहर कि छाँव में...... वो गुलमोहर तुम को आज भी याद करता है..... और वो होली..... अरे बाप रे .... भांग पी कर क्या हुडदंग मचाया था...... सारा गाँव सर पे उठा लिया था तुमने...वो हुडदंग याद करती हूँ और कल जो तुमको देखा तो सच मे तुमको फ़कीर कहना अच्छा लगा.

जब १२ एक इम्तेहाँ मे मेरा एक पर्चा  अच्छा नहीं हुआ....तो बाप रे क्या डांटा था तुमने..... सारे शब्द याद हैं.... लेकिन वो डांट बहुत अच्छी थी.... अब कब डांटोगे....

तुम से कुछ देर मिलकर मेरे अंदर इतना सब चल रहा है..... और तुम्हारे अंदर....? चल तो तुम्हारे अंदर भी रहा होगा.... लेकिन तुम्हारी जब्त करने कि आदत......तौबा... तौबा....

जानते हो.... तुम्हारी  भाभी और भाई साहब से मुलाक़ात हुई.... मैने ऐसे ही पूंछा कि तुम कहाँ हो..... तो भाई साहब बोले..... क्या पता कहाँ हैं....कितना समझाया, नौकरी कर लो, शादी कर लो.... लेकिन वो तो बड़े साहब हैं.....

भाभी कहने लगीं.....भैया.... तो पता नहीं अब हैं भी कि नहीं.... कुछ खबर नहीं.

कैसे बोल सकता है कोई ऐसे.... बोलो तो.

सुनो.... पापा तुमको याद करते हैं.....वो जो एक गजल तुमने उनको सुनाई थी....

यारों  घिर आई शाम चलो मैकदे चलें, याद आने लगे हैं जाम चलो मैकदे चलें.
अच्छा नहीं पियेंगे जो पीना हराम है, जीना ना हो हराम चलो मैकदे चलें.

वो आज भी याद करते हैं......

पिछली बार जब घर गयी थी तो कुसुम मिली थी.... कुसुम कि तो याद होगी..... वही जो मेरे घर संगीत सीखने आती थी.... तुमको याद कर रही थी.....वो कहती थी कि तू तपस्वनी बनेगी..... तू, उसको याद कर रही है..... और वो अपने मुँह से कुछ बोलेगा नहीं. मर जाएगा , लेकिन मुँह नहीं खोलेगा......उसको पता है..... कि वो कहाँ है और तू कहाँ.....

तुम धनुषकोटि जा रहे हो...... लेकिन यहाँ भी तो ध्यान हो सकता है.....क्या ईश्वर  यहाँ नहीं है....?

संसार से भागे फिरते हो....भगवान् को तुम क्या पाओगे......बुरा मत मानना , मेरे हो, इसलिए ऐसा कह रही हूँ...

प्रेम ही ईश्वर है.... तुम ही ने सिखाया था और अब...... लौट आओ...... जिदगी अब भी तुम्हारा इंतज़ार कर रही है..... मेरे फ़कीर.

मेरे ब्लॉग के साथियों,

मेरे ब्लॉग के साथियों,

मेरे पिछले तीन ब्लोग्स मे जो भी आप ने पढ़ा, वो मेरा एक प्रयत्न था की एक पुरुष , किसी महिला की भावनाओं  को, उसकी मनः स्तिथि को कितना और किस तरह समझता है .... पता नहीं मै कितना कामयाब  हुआ.

कृपया अपने कमेंट्स से मुझे बताएं की क्या कमी थी और कहाँ मुझे और मेहनत करनी है.

  

पंछी ऐसे आते हैं.....

कितने हंसमुख थे..... बात  बात पर शेर, बात बात पर चुटकुला... और कितने रंगीले इंसान और अब खामोश. अच्छी नहीं लगती चुप्पी तुम्हारे चेहरे पर..... हंसो .... खूब हंसो.... मुझे तुम्हारी हंसी सुननी है.. मै तो पागल हो गयी हूँ.... किस से बात कर रही हूँ...?

दीदी, दीदी.....

क्या हैं..... हांफ क्यों रही है...... बाबा तो ठीक  हैं...?

हाँ.... सब ठीक है..... फ़कीर आया है....

आया है नहीं .... पगली आयें हैं... बोलते हैं... तुझ से बड़े हैं की नहीं.....

हाँ दीदी.... मुँह से निकल गया.

कहाँ हैं...... फ़कीर.

मंदिर मे हैं..

अच्छा..... तो तू मुझे क्यों बताने आई है.....

पता नहीं दीदी.... जो मुझे लगा अगर वो बोलूं तो आप मारोगे....

अच्छा..... क्या लगा तुझे बता तो...

दीदी, मुझे ये महसूस हुआ की आप से फ़कीर की तरफ कोई लो जाती है. अब इस का मतलब ना पूंछना , जो लगा सो बोल दिया.... हाँ.

मै कुछ देर उसका चेहरा देखती रह गयी. शायद इसकी संवेदनशीलता , हम सब से ज्यादा है.

आप आओगे ना मंदिर.... , दीदी.

क्या जवाब दूँ इसको..... सोचने लगी मैं.

ठीक तो हैं ना तेरे फ़कीर..... मैने बात को मोड़ने के लिए पूंछा.

उपर से तो ठीक ही लगते हैं.....

अच्छा... तुझे  उपर का और अंदर का बड़ा अंदाज है. दादी माँ जैसी बात ना किया कर.

वो चली गयी...... मुझे उहापोह मे छोड़कर.

जाऊं.... ना जाऊं..... लेकिन एक बार सब कुछ जान ने का मन तो है.... की आखिर हुआ क्या....?

मैं मंदिर चल पड़ी...... आज तो तय कर लिया था की सब कुछ उगलवा लुंगी.... विश्वास था. क्योंकि वो किस तपस्वनी की बात कर रहे थे..... मैं जानती हूँ. मेरी बात वो टालेंगे नहीं या टाल पायेंगे नहीं...... ये विश्वास था.

कब मंदिर आ गया .... पता नहीं चला. दोपहर का वक़्त... मंदिर मे कोई ख़ास हलचल नहीं.... पंडित जी शायद आराम कर रहे थे....

दीदी............... मै जानती थी आप आओगे..... अंजलि बच्चों.... की तरह खुश थी.... जैसे ... फ़कीर नहीं... उसका अपना ही कोई आ गया हो.

लो वो फ़कीर ..... बरगद के नीचे बैठे हैं..... मैं आप के लिए पानी लाती हूँ...... और बिना मेरे जवाब का इंतज़ार लिए.... भाग गयी.

मैं क्या करूँ....... वो बरगद के नीचे ध्यान मे.....

मै वहीं जा कर बैठ गयी...... शायद..... उनका ध्यान भंग हुआ...... और उन्होंने आँख खोली..... मुझे सामने देखा ....... तो शांत..... कोई हलचल नहीं, शांत.

कैसी  हो.......तपस्वनी? शांत सा सवाल.

ठीक हूँ..... आप कैसे हो, ये क्या हाल है, कहाँ थे, सब लोग कहाँ हैं.....ये फ़कीर क्यों.... सवालों की झड़ी मेरी तरफ से.

हलकी सी मुस्कान के साथ बोले..... सब ठीक हैं. माता-पिता जी अब नहीं हैं. भाई - बहन सब अपने अपने परिवारों के साथ सुख से हैं.

और आप.....

मैं आप के सामने हूँ..... स्वस्थ हूँ.

दीदी या  भाईसाहब, भाभी  , किसी ने चिंता नहीं करी की आप कहाँ हो?

सब सुख से हैं ना.... और क्या चाहिए. हम जिस को प्रेम करेती हैं... वो सुख से होना चाहिए.

अरे..... मैने तो पूंछा ही नहीं..... आप सुख से हैं ना..... फ़कीर का सवाल.

हाँ..... सुख से हूँ. यही सुनना चाहते हैं, ना आप. मुस्कराओ  मत.....क्यों सब कुछ छोड़ दिया.....

कहाँ छोड़ दिया..... अगर छोड़ दिया होता तो इस गाँव मे क्यों आता...? मै पंछी  हूँ..... अब कोई बंधन नहीं.....
तुमने २२ साल तपस्या करी .... मुझे  तो अभी बहुत  आगे , बहुत दूर जाना है...... देखो पंछी ऐसे आते हैं..... और खुश रहना. मै आज धनुषकोटि जा रहा हूँ......

बता रहें हैं या आज्ञा मांग रहे हैं.....

आज भी तुम्हारी वाक्पटुता का जवाब नहीं है...

अच्छा ....... कहीं घर नहीं बनाया.... कहाँ रहते हैं?

घर.......? सब कुछ जान कर ऐसा प्रश्न , क्या सार्थक है?

देखो  मैं, सब कुछ छोड़ कर, परिव्राजक  बन चुका हूँ.....अब घर , रिश्तों की बाते बेमानी लगती हैं.....

तबियत कैसी रहती है, अब आपकी....?

जेहि विधि raakhey  राम, तेहि विधि रहिये.

क्या मेरा कसूर था.....

नहीं.... इस दोष के साथ मत रहना. किसी का दोष नहीं. अच्छा लगा तुमसे बात करके.

भाई-बहन के साथ सम्बन्ध हैं.....? किसी को पता है की आप कहाँ है.....

एक गहरी सांस....... देखो.... माता-पिता एक वृत्त की तरह होते हैं.... जब वो नहीं होते तो वो वृत्त , जो सब को बाँध के रखता था, खत्म हो जाता है. सब अपनी-अपनी दिशा पकडते हैं... वो भी इतनी जल्दी... की जैसे इंतज़ार कर रहे हो.

यहाँ कब तक हो....?

पता नहीं.....

जेब मे कुछ पैसे हैं....मै आप को जानती हूँ, इसलिए पूंछ रही हूँ. बुरा ना मानियेगा.

नहीं.... मै बुरा क्यों मानूंगा...?

आप कितने लापरवाह हैं, मालूम है. किसी को देना होगा तो पैसे का इंतजाम कर के भी उसकी मदद करेंगे, लेकिन खुद के लिए....... कुछ खाने - पीने का हिसाब है....?

पैसे की जरुरत नहीं रहती. तपस्वनी, जो मिल जाता है..... अच्छा है.

इतने साल से घूम रहे हो.... कहीं तो ठिकाना बनाया होता.....

तुम जब इस तरह के सवाल करती हो तो मै क्या जवाब दूँ....?

अच्छा तुम जाओ..... शाम हो रही है...... मेरी चिंता ना करना. जाते जाते आज एक शेर की मांग नहीं करोगी......

इंतज़ार कर रही हूँ.....

जहाँ मैं कैद से छुटू , कहीं पर मिल जाना,
अभी ना मिलना अभी ज़िन्दगी की  कैद मे हूँ.

अपना ध्यान रखना... और आते रहना .... क्या कसम उठाओगे.....?

Tuesday, October 26, 2010

और कितना रंग भरोगे.....

तुम चले गए.... गाँव सूना हो गया. मंदिर सूना हो गया.

पंडित बाबा की तबीयत ठीक नहीं रहती है.... अंजलि  परेशान है.

दीदी.... क्या फ़कीर, फिर आयेंगे? अंजलि का प्रशन.

मुझसे क्यों पूंछ रही है......?

नहीं दीदी..... बाबा की तबीयत ठीक नहीं रह रही है.....बाबा फ़कीर के बारे में पूंछते रहते हैं.

मै क्या बताऊँ.... बिटिया. पता नहीं कहाँ होंगे.

फिर .... क्या बाबा ठीक नहीं होंगे..... उसका भोला सा सवाल

नहीं ऐसी बात तो नहीं हैं....... मै वैद्य जी को लेकर मंदिर आती हूँ , तू चल.

ठीक है दीदी. वो चली गयी.

मैं बैठी  बैठी अपने आप से बात करने लगी...... क्या जरुरत थी तुमको यहाँ आने की. सब अच्छा तो था यहाँ पर. गुस्सा आता है तुम पर. लेकिन तुम सब छोड़ कैसे बैठे......

अरे..... पागल हो गयी है क्या...... किस से बात कर रही है. अरे... हाँ मुझे तो वैद्य जी को लेकर मंदिर जाना है.

अंजलि...... देख वैद्य जी आये हैं.

आओ दीदी..... वैद्य जी आप फ़कीर को ले आओगे?

बाबा--- ठीक हो जाएंगे.... बिटिया.... पंडित जी कलाई पकड़ कर वैद्य जी ने कहा.

सर्दी लग गयी है...... मौसम भी तो करवट ले रहा है. जरा अदरक और तुलसी डालकर चाय पिला दे.... बिटिया.

अच्छा.... चलता हूँ. पंडित जी आराम कर लो. उम्र का भी ख्याल कर लो.

हाँ... हाँ वैद्य जी . अच्छा... राम राम.

आओ बिटिया ... तुम कब आयी?

दीदी ही तो वैद्य जी को लेकर आयी थीं.

अच्छा..... कैसी हो बेटी?

ठीक हूँ, बाबा.

बिटिया..... कभी कभी सोचता हूँ... तो बड़ा अजीब सा लगता है...

क्या बाबा...

यही की वो फ़कीर यहाँ २ महीने रहा और किसी को उसका नाम ही नहीं पता. सब फ़कीर के ही नाम से उसको जानते हैं.....

मै खामोश..... क्या बोलूं..... किस घर के हैं....इनके पिता जी कौन थे.....सब तो जानती हूँ.

लेकिन वो और फ़कीर....... ये क्या गोरख धंधा है..... किस से पता करूँ..... कैसे पता करूँ.......

अंजलि...... खाना मै बना दूंगी.... घर आ के ले जाना.

अरे.... इतना तकलीफ क्यों कर रही हो बेटी.....

बेटी भी बोलते हो..... और ऐसी बात भी करते हो..... तुम भी एक गोरख धंधा हो बाबा.

मैं भी...... क्या कोई और भी है..... पंडित जी चाय का गिलास नीचे रखते हुए बोले.

सब हंसने लगे.... अच्छा राम राम.... अंजलि.... एक घंटे बाद खाना ले जाना.

जी दीदी....

मै वापस घर के रास्ते.....फ़कीर... फ़कीर....आखिर ऐसा हुआ क्या.... जो ये सब छोड़-छाड़ बैठे.... ये तो नौकरी करते थे.... पिता जी भी सरकारी विभाग मै थे, माँ भी इनकी नौकरी करती थें.....फिर..... हुआ क्या.... कहाँ हो फ़कीर....

छि.छि.. मै क्यों फ़कीर .. फ़कीर कहने लगी... जब मै नाम जानती हूँ.

लेकिन बहुत संतोष है दिल को..... तपस्वनी को भूले नहीं. कैसी विडम्बना है ..... मै उनकी तपस्वनी हूँ.... वो कह नहीं सकते ..... वो फ़कीर क्यों और कौन है.... मै कह नहीं सकती.....

मरुँ तो किसी एक चेहरे मै रंग भर जाऊं,
नदीम काश मै, एक ये काम कर जाऊं.

यही कहा था ना उन्होंने..... और कितना रंग भरोगे.....

Sunday, October 24, 2010

प्यार तेरा ना हो... तो जियें किस लिए

इस घुटन से भरी ज़िन्दगी मे कहो,
प्यार तेरा ना हो... तो जियें  किस लिए.
दर्द से अधमरी  , ज़िन्दगी मे कहो,
प्यार तेरा ना हो... तो जियें किस लिए.
रात भर बस पपीहा पुकारा करे
और बेबस गगन को निहारा करे,
किन्तु कोई ना उससे करे बात कुछ,
तो कहो दीन किसका सहारा करे.
झूलती झांझरी ज़िन्दगी मे कहो,
प्यार तेरा ना हो... तो जियें किस लिए. 
प्रोफ. सुरेश चंद्रा.

Saturday, October 23, 2010

हे नाथ, तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है

बहुत बैचनी है इन दिनों. कुछ समझ मे नहीं आता की क्या बात है, क्यों ये बैचनी. कुछ अधूरा सा लगता , कुछ पाने की तमन्ना , एक रिक्तता अपने अंदर महसूस करता हूँ....... तुम सुन रहे हो ना..... कभी कभी मन करता है की परिव्राजक बन जाऊं और निकल पडून उसे खोजने जिस की कमी मै महसूस करता हूँ, जिस से मिलने को मन व्याकुल है, जिस के पास जाने के लिए मेरा अंतर मुझे अपने आप से बगावत करने पर मजबूर कर रहा है........

कहीं मेरी हालत उस हिरन जैसी तो नहीं... जिसके नाभि मे ही कस्तूरी होती है , लेकिन वो उसकी खुशबू मे पागल हो कर उसको जंगल - जंगल ढूंढता रहता है. पता नहीं...... मुझे कुछ समझ मे नहीं आता. मेरा मन सम्पूर्णता चाहता है..... या तो इस दुनिया मे या तो उस दुनिया , लेकिन सम्पूर्णता. आधी अधूरी....ज़िन्दगी..... ना और नहीं......

कहते हैं.... ईश्वर जिसको चाहता है..... उसको कोई चीज़ पूरी नहीं देता. अगर वो पूरी दे देगा.... तो शायद .... हम उस तक ना पहुँच पायें.... ऐसी मेरी सोच है. उसने सब कुछ दिया..... जितनी मेरी जरुरत है.... उससे ज्यादा दिया.....जितना के मै काबिल हूँ... उससे ज्यादा दिया......लेकिन फिर भी .......... अब मै तेरे पास आना चाहता हूँ.
हाँ.... तेरे पास. जहाँ ना कमी है... ना भरपूर. जहाँ ना अच्छाई है, ना बुराई. जहाँ ना रात हो, ना दिन. जहाँ ना ये हो, ना वो. वहाँ पर बस.......ज़िन्दगी हो.

कुछ तो अंदाजा लग रहा है मुझको..... आजकल मै दिल और दिमाग, इस दुनिया और उस दुनिया के बीच मे फंसा हुआ हूँ.   दिमाग पूरी ताकत लगा कर मुझको इस दुनिया के आकर्षणों मे खींच लाने को आमादा है.... तो दिल अंदर से चीख चीख कर मुझे सावधान करता रहता है. दिमाग पल भर के आनंद की वकालत करता है, तो दिल शाश्वत आनंद की तरफ मुझे ले जाना चाहता है. दिमाग कहता है.... तू है..... दिल कहता है..... तू वो नहीं है.... जो तुझे होना चाहिए.

जैसे सांप अपनी केचुल छोड़ता है, उसी तरह मुझे भी ये केचुल छोडनी है....... तो साथ क्या जाएगा......जो पल तेरी याद मे गुजर रहे हैं... वही तो मै जी  रहा हूँ..... बाकी तो मैने समय नष्ट ही किया है....... जी हाँ. जो समय उसके साथ गुजरे (मै उसको महबूब कहता हूँ) , वही तो जिए हैं मैने. उन पलों मे, सब कुछ वैसा ही तो बीता था, जैसा मे चाहता हूँ....... तो फिर ये अंतर्द्वंद क्यों........ जब राह दिख रही तो आगे बढ़ो , मंजिल पर पहुँचो और पा लो उसे...... वो भी तो तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा है.

तुम तो सब जानते ही हो...... हे नाथ, तू ही मनुष्य जीवन का ध्येय है. हमारी इच्छाओं की गुलामी ही हमारी उन्नति मे बाधक है. तू ही हमारा एक मात्र स्वामी और इष्ट है, बिना तेरी सहायता तेरी प्राप्ति असंभव है........... बिना तेरी सहायता....... जानकीनाथ.  जानकी पूत.

एक वसीयत

चुप रहो.... सुंदर लाल. तुम को पता है तुम क्या कह रहे हो?

हाँ भाई साहब .... पता है और पूरे होशो-हवास मे आप से ये कह रहा हूँ. आप से ही  सीखा है... जो तुम्हारी बुराई करो... उनकी खुशी के लिए प्रार्थना करो.

लेकिन ये क्या वसीयत है तुम्हारी..... मैने एक पेज उसके आगे रखा.

ये मेरी वसीयत है.... मेरे पास और तो कुछ नहीं है...... लेकिन मेरी दिल से ईश्वर से ये प्रार्थना है  की मेरी ये वसीयत आप अमल मे ले कर आयें.

मै तुम्हारी वसीयत पढ़ सकता हूँ....... मेरी सुंदर लाल से दरख्वास्त.

जी.... आप को दरख्वास्त करने की जरुरत नहीं है.

" मै सुंदर लाल , अपने पूरे होशो-हवास मे,  एक विनती करता  हूँ की मेरे  ना रहने  की खबर  , निम्नलिखित शाख्स्यितों को १ किलो मिठाई की डिब्बे के साथ दी  जाएँ और इस बात के भी इत्मीनान कर लिया जाए की उनको कोई तकलीफ नहीं है.
१. श्री और श्रीमती राजगोपाल यादव.
२. जीतेन्द्र और श्री कृष्णराम
३. श्री सत्यनारायण चतुर्वेदी.
४. श्रीमती....... अरे क्या उनका नाम है........

श्री सत्यनारायण चतुर्वेदी साहब को sugarfree से बनी मिठाई दी जाए, ताकि वो इस  ख़ुशी से वंचित ना रह जाएँ. "

......... ये क्या है... सुंदर लाल??? मेरा अटपटा सा सवाल....

यही मेरी वसीयत है.... जो मै आप के पास रखवाना चाहता हूँ.

वो तो ठीक है... लेकिन ऐसी अटपटी से वसीयत क्यों...?

सुंदर लाल..... कहीं खो गया......थोड़ी देर बाद बोला........

मेरे पूजन आराधन को, मेरे सम्पूर्ण समपरण को, मेरी कमजोरी कह कर मेरा पूजित पाषण हंसा, तब रोक ना पाया  मै आंसू, जब दृगजल मे परिवर्तित हो, मुझ पर मेरा अरमान हंसा, तब रोक ना पाया मैं आंसू.

रात भर शहर की दीवारों पर गिरती रही ओस,
और सूरज को समुंदर से ही फुर्सत ना मिली.

सुंदर लाल..... मेरे स्वर मे कुछ नमी...ये है दुनिया यहाँ, कितने अहदे वफ़ा बेवफा हो गए देखते देखते....... उनके लिए क्यों दुखी होना.......

भाई साहब..... जिन पत्थरों को हमने अता की थीं धडकने, वो बालने लगे तो हमी पर बरस पड़े......

लेकिन मै निराश या दुखी नहीं हूँ..... मेरे हाँथो से तराशे हुए पत्थर के सनम, मेरे ही सामने भगवान्  बने बैठे हैं.

ये दुनिया है.... सुंदर लाल..... यहाँ यही चलन है.

आप को सब पता है...... भाई साहब......

हाँ सुंदर लाल..... सब जानता हूँ. जिन जिन लोगों को तुमने मिठाई देने की बात लिखी है..... मैं उनको भी जानता हूँ.

भाई साहब..... मै सिर्फ इसलिए चुप हूँ....... की मुझको ये सिखाया गया की जिस को प्यार  करो उस पर ज़िन्दगी कुर्बान कर दो........

सुंदर लाल...... तुम क्या समझते हो..... की जिस ने भी तुम्हारा ये हाल किया है..... वो आराम से होगा???????

मै नहीं जानता भाई साहब.....

मै जिस के हाँथ मे एक फूल दे के आया था,
उसी के हाँथ का पत्थर मेरी तलाश मे है......

मै तो ईमानदार था.

यहीं पर तो तुम गलती कर गए.

आप ही ने सिखाया था.....

मेरे  दोस्त....कई चीजें मै बताता हूँ.... पर वो सिर्फ मेरे लिए होती हैं...... दर्द से मेरा पुराना रिश्ता है. उसको मेरे लिए छोड़ दो.

लेकिन आप मेरी वसीयत को तो अमल मे लायेंगे, ना?

तुम मुझे असमंजस मे डाल रहे हो... सुंदर लाल.

कोई असमंजस नहीं भैया.....

मे जो ख़ुशी अपने जीते  जी नहीं देख पाया.... वो मेरे बाद उनको मिले.... यही दुआ है. मै सिर्फ इतना अर्ज़ करना चाहता हूँ..... की आज भी, इस घोर कलयुग मै भी......अगर कोई किसी से कहता है की मै तुम्हारे बिना नहीं जी सकता तो उसको, इस बात पर यकीन करना चाहिए.

लेकिन आप ने मुझे एक गलत बात सिखा दी....  भाई साहब????

वो क्या......?

आप ने कहा था की प्यार जब हद से बढ़ जाता है तो या वहशत बन जाता है , या पूजा. और मैने अपने प्यार को पूजा मै बदल लिया और उसका अंजाम.........

जिन पत्थरों को हमने अता की थीं धडकने, वो बालने लगे तो हमी पर बरस पड़े......



ये मेरी गलती है , सुंदर लाल.

नहीं भाई साहब , ऐसा ना कहिये.

आप ने तो प्यार करना सिखाया था ......... सौदा करना नहीं.

चरित्रहीन-2

पापा सुंदर लाल अंकल  आये हैं.... बिटिया ने दरवाजा खोल कर बोला.

अंदर बैठा दो.....

नमस्ते सुंदर लाल.... काफी दिन बाद नज़र आये.

हाँ भाई साहब .... थोड़ा व्यस्त था. इनसे मिलिए. ये हैं नरपत प्रसाद मिश्रा, संकटा प्रसाद चौरसिया, बसेसर सिंह.

आप सभी का स्वागत है.... आज मेरी कुटिया पर एकदम से धावा.......?

सुंदर लाल..... नहीं एक दम से नहीं..... काफी दिनों से मै सोच रहा था कि इन लोगों कि मुलाकात आप से करवा दूँ.... लेकिन कमबख्त वक़्त इज़ाज़त नहीं दे रहा था. आज अम्बेडकर जयंती कि छुट्टी थी तो आज निकल पड़ा.

अच्छा लिया..... अरे बिटिया .... जरा गुड़ और पानी तो लाना.

लाई पापा......

बोलिए मै क्या कर सकता हूँ.....

नरपत..... भाई साहब , हम सब बगावत करने के मूड में हैं......

अरे अरे..... क्या हुआ भाई.......?

गाँव कि चोपाल ने एक निर्णय दिया है , जिस से हम मे से कोई खुश नहीं है.....

कौन सा निर्णय ....... ?

संकटा..... लो आप ही नहीं जानते....

नहीं भाई..... अगर जानता तो पूँछता  क्यों.... क्या मेरे खिलाफ या मेरे बारे मे कोई निर्णय......? मैने हंसते हुआ पूंछा.

पल भर सन्नाटा......

सुंदर लाल....... भाई साहब क्या आप को वाकई नहीं पता..?

किस बारे मे भाई......?

मुखिया ने आप के खिलाफ फतवा जारी किया है........नरपत का जवाब.

किस बारे में..... सच बोलूं तो मुझे  ये भी पता नहीं है कि पंचायत मे है कौन कौन.

सुंदर लाल..... रामकृष्ण प्रसाद, सत्यनारायण गुप्ता, राजगोपाल सिंह, पद्दू, जीतेन्द्र ,  श्रीमती....


अच्छा - अच्छा..... तो फतवा किस बात पर..? क्या फतवा है.... ये बाद मे बताना......

हमारे समाज के एक अभिजात्य वर्ग ने पांचो से शिकायत करी कि आप प्यार का पैगाम बाँटते हैं......

कोई नया फतवा नहीं जारी किया.... सम्मानीय पंचों ने.....

सम्मानीय................. बसेसर का खीज भरा स्वर.

हाँ भाई......

भाई..... क्या आप सब लोगों को पता था कि में कहाँ रहता हूँ? मेरा सभी अतिथियों से सवाल?

नहीं.... सब का एक जवाब. सिर्फ सुंदर लाल जी को ही पता था कि आप कहाँ रह रहे हैं...... ये इलाका तो गाँव के जंगल मे गिना जाता है...... वही तो हम सब को लाये हैं.

सुंदर लाल.... तुमने  इन सब लोगों को बताया नहीं....?

देखो भाई लोगों.... आज आ गए हो..... लेकिन दुबारा ना आइयेगा....कीचड मे पत्थर मारोगे तो छींटे आप के दामन पर ही आयेंगे.....

कई साल पहले.... मुझे चरित्रहीन करार दे दिया गया था. हाँ .... लोगों कि ये शिकायत सही है कि मै प्यार बाँटता हूँ.... मै क्या करूँ.... जिसके पास जो होगा , वही तो देगा.....

नरपत...... तो आप ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई.....

देखो भाई नरपत...... जीवन मे एक समय  होता है , जब हम कुछ भी बर्दाशत कर लेटया हिन्... और ईंट का जवाब पत्थर से देने का हौसला भी रखते हैं...... ये जो तीन बच्चे देख रहे आप..... इनको पहचानते है....

नहीं......

रमेश और इम्तियाज़ को तो जानते ही होंगे.....

हाँ- हाँ.... रमेश मोची और इम्तियाज़ ..... वो भडभूजा....

जी हाँ.... गाँव मे जब हंगामा हुआ था राम - रहीम के नाम पर तो इन बच्चों के परिवार मे कोई नहीं बचा था... अभिजात्य वर्ग आया था..... पूरी और सड़ी हुई सब्जी के दो चार पकेट दे गया था , और दो कम्बल...... अभिजात्य वर्ग था.... तो टीवी वाले भी आये थे, फोटो वगैरह भी खींची थी.....

मैने अपने पंच श्री राजगोपाल सिंह जी से पूंछा कि इन बच्चों......

अरे- अरे बड़ा बुरा हुआ....... इन बचों.... के साथ.... देखो हम लोग प्रयत्न करेंगे कि सरकार कि तरफ से कोई रहत आ जाए.... ( वो यह  भूल गए कि राहत तो आ चूकी, उसी रहत से नया ट्रक्टर आया था) खैर.....

तब से ये तीनो बच्चे  मेरे साथ रहते हैं...... ईश्वर कि देन हैं.

अरे इंदिरा..... यहाँ आओ.... मैने बड़ी वाली बिटिया को बुलाया.

हाँ... पापा....

जाओ... जरा मुन्नी और रहमान को बुला लाओ...

जी अभी बुलाती हूँ......

ये बड़ी बिटिया है...... जिसका जो नाम था , वही है... मैने अपनी सहूलियत के लिए किसी का नाम नहीं बदला.

आओ.... बच्चों.... ये है इंदिरा..... ये आंठ्वी मे पढ़ती है, ये है मुन्नी ,. ये छठी मे पढ़ती है और ये हैं हमारे रहमान साहब , ये तीसरे मे पढते हैं.....

जाओ... जा कर अपना काम कर लो....... देखो कल स्कूल से कोई शिकायत ना आये....

जी  अब्बा.... रहमान ने बड़ी जिमेदारी से जवाब दिया.... और हवा कि तरह तीनो वहाँ से रफू चक्कर हो गए.

 बड़े प्यारे बच्चे  हैं..... संकटा की प्रतिक्रिया.

ईश्वर की देन है.....

ये कौन से स्कूल मे पढते है.... ? बसेसर का सवाल

ये सरकारी स्कूल मे पढते  हैं.... बक्शी का तालाब मे.

इतनी दूर..... यहाँ क्यों नहीं पढवाया.....? अब नरपत का सवाल

यहाँ ........ ये जो लालाजी का स्कूल है..... इसमे?

हाँ......

यहाँ पर एक अध्यापक हैं..... श्री जीतेन्द्र ...... उन्ही की कृपा से आज मे इस जंगल के मंदिर मे रह रहा हूँ......

कौन...... वो रामकृष्ण के जो मित्र हैं......

जी ..........

मैं आभारी हूँ आप सभी का की आप लोग आज यहाँ आये.... लेकिन आप की और आप के परिवार की भलाई के लिए दरख्वास्त करता हूँ..... की दुबारा यहाँ ना आइये.

भाई साहब..... सुंदर लाल की रोषपूर्ण आवाज़. ....

देखो सुंदर लाल...... तुम तो सब कुछ जानते हो... मेरे बारे मैं..... हाँ मै प्यार बाँटता हूँ, प्यार का पैगाम फैलाता हूँ...... तो मेरे खिलाफ अभिजात्य वर्ग ने जो दोष लगाये हैं वो सही हैं......

तुम क्या चाहते हो..... मै भी चापलूसों के वर्ग मे शामिल हो जाऊं....? नहीं भाई... ये मुझसे ना हो सकेगा......
मोमबत्ती भी खुद जलती , तब हम सब को रौशनी मिलती है, गाय जब तक दूध देती है, माता जानी जाती है, नहीं तो..... नचिकेता ने भी अपनी पिता से यही प्रश्न किया था.....

मै चरित्रहीन  हूँ..... तो ठीक है..... प्रेम करना अभिजात्य वर्ग का काम नहीं है....... उनके पास और भी बड़े बड़े काम हैं.... फैक्ट्री चलाना , स्कूल चलाना, स्कूल मे बच्चों को प्रेम की शिक्षा देना.......

इन तीन बच्चों के प्यार की ताकत जब तक मेरे साथ है.... मै दुनिया का सब से अमीर आदमी हूँ..... आप लोग क्या कहतें हैं.... बोलिए?

Tuesday, October 12, 2010

उंगलियाँ जलती रहीं और हम हवन करते रहे.....

उंगलियाँ जलती रहीं और हम हवन करते रहे.....  कितने  मजबूर होंगे वो...... जो खुद को जलाते रहते होंगे ताकि दूसरों को रौशनी मिलती रहे. और उपर से ये शर्त और भी है जमाने वालों की .... मुस्कराते रहो.  काश !!! किसी को तो भगवान् ने दिल चीर कर देखने की ताकत दी होती. कोई देखता तो की उंगलियाँ जलती रही और हम हवन करते रहे का मतलब क्या होता है. धोखे पे धोखा, बेवफाई पे बेवफाई , चोट पे चोट...... और फिर भी मुस्कराने का कलेजा....... फस्ले-गुल आई तो फिर एक बार असीराने-वफ़ा, अपने ही खून के दरिया में नहाने निकले.