Monday, November 28, 2011

तुम....

तुम....

एक ग़ज़ल तुम पे लिखूं वक़्त का तकाजा है बहुत,
इन दिनों खुद से बिछुड़ जाने का धड़का बहुत.....

हाँ ..... कई दिनों से सोच रहा हूँ...की तुम पर लिखूं.....यानी अपनी कलम का इम्तेहान लूँ....तुम साथ नहीं हो, तुम पास नहीं हो......लेकिन मैं अकेला भी नहीं हूँ और तुम दूर भी नहीं हो.....

खरीद सकते उन्हें तो अपनी ज़िन्दगी देकर भी खरीद लेते ,,,

पर कुछ लोग “कीमत ” से नहीं “किस्मत ” से मिला करते हैं …!!

अब बताओ किस्मत से कौन लड़े.......मेरा हर गीत अधूरा है.......मेरी हर शेर अधूरी है.....कुछ इधर - उधर बिखरा है.....इनको कौन संवारे.....तुम !!!!!!

तुम तो हो ही नहीं.......हो भी नहीं और हर जा हो....... तुम....

अभी तो गीत गुनगुनाया भी नहीं..था.....और रागनी रूठ गयी.....

अब तुम पर लिखूं तो क्या लिखू.......या क्या क्या लिखूं....कुछ रुसवाई का डर भी होता है....

मैं एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ,
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाए....

एक मन करता है...सब कुछ लिखू दूँ, सब कुछ बोल दूँ...तुमसे.....लेकिन तुम कहाँ हो.....तुम से क्या बोलूं....कि  दिल की धड़कन हो तुम.....

दिन को आंखे खोल कर, संध्या को आंखें मूँद कर,
तेरे हर एक रूप की पूजा नयन करते रहे.....
उंगलियाँ जलती रहीं..और हम हवन करते रहे.....

अब क्या करूँ......मुहब्बत चीज़ ही ऐसी है....

लो तुम से मुहब्बत का जिक्र करना......सूरज को चिराग दिखाने का गुनाह भी करवाना  है क्या मुझसे.....ना रे बाबा ना.......ना ना...

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