Monday, September 27, 2010

कब तक आखिर, आखिर कब तक

रातों कि उम्र कम होने लगी है...... ये बात कुछ अजीब सी लगती है , लेकिन मुझे भी तभी एहसास हुआ जब में अपने गाँव कि जमीन छोड़ कर शहर में आ बसा.

रातों की उम्र सिर्फ शहर मे ही कम हुई है....... गाँवों में नहीं . वैसे आप का सोचना वाज़िब है की रातों की उम्र कैसे कम हो सकती है.... जो अल्लाह ने बनाई हैं. आप को भी इतना तो अपना भी बचपन याद होगा की जब घर के बड़े बुजुर्गों की ये हिदायत हुआ करती थी कि इससे पहले कि शाम रात कि महफ़िल में  कदम रखे , सब लोग घर मे हों. और जब सब घर में होंगे तो खाना पीना समय से होगा , तो सो भी समय से जायेंगे. तो रात कि उम्र लम्बी लगती है.

अब मैं गाँव से निकल कर शहर आता हूँ..... जी.... सही सोच रहें आप. काफी टाइम तो मुझे ये तय करने मे लग गया कि यहाँ रात होती भी या नहीं. काफी टाइम तो मैं ठीक से सो भी नहीं पाया कि रात हो तो सोऊँ. लेकिन रात थी होती ही नहीं थी. किसी भी समय सड़क पर निकल जाऊं तो हर तरफ आदमी या गाड़ियां दिखाई  देती थी. बड़ा परेशान था.... सच, मैं बड़ा परेशान था.घडी देख कर और सूरज का उगना और अस्त होना देख कर , मैं ये अंदाज लगाता रहा कि अब शाम हो गयी हैं और अब रात.

अजी..... कहाँ कि रात. कहते हैं ना कि शाम के बाद तो शहर जवां होता है. मेरे घर के पास कुछ अमीर लोग रहते है. वो कब सोते हैं और कब जागतें  है... इसका अंदाज तो काफी टाइम के बाद मुझे हुआ. मैं अपनी घडी से टाइम और सूरज के अस्त होने को देख कर अंदाजा लगता था कि अब शाम हो रही है. हाँथ - मुँह धोकर थोड़ी दिया-बात्ती करलूं..... तो पास के घरों से अजीब सा शोर सुनाई पड़ने लगता है. और ज्यों-ज्यों शाम रात में तब्दील होती जाती हैं... इस शोर कि आवाज़ और बढने लगती है.

मेरे मित्र....... जी ............. हाँ........... ठीक पहचाना आपने. श्रीमान सुन्दरलाल जी "कटीला" , उनको शहर मे रहते- रहते काफी समय हो गया है...... अंग्रेजी भी बोलते है. उन्होने मुझे समझाया " गाँव कि सादगी, गाँव मे ठीक थी. शहर मे यूँ जीयोगे तो मर जाओगे" . ये जो शोर सुन रहे हो......... इसको किसी और के सामने शोर मत कह देना. इसको music कहते हैं....... शहर में.

music.....मतलब संगीत? मेरा भोला सा सवाल.

हाँ..... सुन्दरलाल का दो टूक जवाब.

लो कल लो बात..... ये संगीत है. अरे भाई संगीत तो उसको कहते हैं जहाँ आँख बंद हो जाती हैं, सर होले-होले झूमने लगता है. ये कौन सा संगीत है... जहाँ...........

खैर.... मुद्दा संगीत का नहीं था...मुद्दा था रात की छोटी होती हुई उम्र का. जी..... तो मै कह रहा था...... कि रातों कि उम्र कम होती जा रही है. शहरों  मे तो रात होती ही नहीं है. और इंसान जब कुदरत के कायदे-कानूनों से      छेड़-छाड़ करता है खामियाजा भी उसी को देना पड़ता है और दे भी रहा है, लेकिन.... इंसानों के ख्वाहिशों कि कोई इन्तेहाँ नहीं.... ये भी पा लूँ.... वो भी पा लूँ...... और थोड़ा और थोड़ा और..... इसी दौड़ मे लगा है..... दिन ना दिन रहा.... रात ना रात रही. माँ को पता नहीं कि बेटी या बेटा कहाँ है, पति को पता नहीं पत्नी कहाँ है. सब बिखराव है, लेकिन कहने को हैं घर आबाद सब......... सब यह चाहते हैं कि  हर कोई उनके हिसाब से चले... और ऐसा ही कोई दूसरा भी सोचता होगा. तो फिर जुड़ाव कहाँ .......... एक समझोते के तहत जीते हैं हम सब......अंग्रेजी मे इसको compromise कहते हैं. ना मै तुम से कुछ कहूँ, ना तुम मुझसे. ना तुम मुझसे कुछ पूंछो, ना मै तुमसे. तुम भी , हम भी खुश. यही एक खुशहाल परिवार का राज.....  

और मजे कि बात तो ये है.... कि हम सब इन बातों को समझतें हैं, जानते हैं....... लेकिन.................कोई कुछ नहीं कर सकता ..... कब तक आखिर, आखिर कब तक.

झूठी सच्ची बात पे जीना, कब तक आखिर, आखिर कब तक
मय कि जगह ख़ूने दिल पीना, कब तक आखिर, आखिर कब तक...........

ॐ! शांति, शांति शांति: ....................

2 comments:

vandana gupta said...

बस इसी का नाम ज़िन्दगी है।

JAGDISH BALI said...

मज़ा आ गया ! बहुत दिलकश अंदाज़ेबयां !