Thursday, September 9, 2010

शोर..... रौशनी का.

शोर..... रौशनी  का.

मैने भी कभी नहीं सुना था. लेकिन कुछ दिनों से महसूस जरुर किया.  जब अंदर और बाहर का मौसम एक जैसा हो, तब इस शोर को ज्यादा महसूस किया मैने. मै जहाँ रहता हूँ....... पहाड़ी एरिया है. शाम होते होते एक अजीब सा सन्नाटा छा जाता है. बालकनी  मे खडे होकर दूर तक घरों मे टिमटिमाती हुई लाइट बहुत अच्छी लगती है, और जब उस बीच बारिश की फुहार आती है...... तो आप खुद समझ सकते हैं..... की मन कौन से आसमान पर उड़ता होगा. और उस पर ठंडी हवा के झोंके ................. कुदरत के करिश्मे हैं. एक अजीब सी शान्ति.... मुझे अपने कब्जे मे ले लेती है. मन नहीं होता उस आनंद से बाहर निकलने का...... और , कुछ और, थोड़ा और........ उस बीच तेजी से गुजरती हुई बस या कार की आवाज़..... और फिर दूर तक........... शान्ति.

लेकिन एक दिन एक अजीब सा अनुभव हुआ. ...... मै भी वही था, वही बालकनी, वही बारिश , वही हवा..... लेकिन शान्ति नहीं..... एक बेचेनी..... कुछ नहीं मिल पाने की कसक......कुछ खो जाने का एहसास.......टूटते हुए रिश्तों का दर्द, रिश्तों को बचाने का जोड़ - तोड़, लोगों के द्वारा इस्तेमाल किया जाने का गर्व या दुःख........ पता नहीं क्या कहूँ. दिल की सदा को सुनने और उस पर चलने की ताकत, और फिर उस दौरान पल पल टूटता हुआ मै...... बड़ी अजीब शाम थी. अंतर सिर्फ इतना था की अंदर और बाहर का मौसम अलग था.

उसी बीच बाज़ार जाना भी हुआ, रात मे लगभग १०.१५ बजे. जगमगाती हुई रौशनी से नहाया हुआ बाज़ार. झिलमिलाती हुई चीजें. लोग कम थे, बड़ी - बड़ी दुकाने खुली थी, फुटपाथ  के दुकानदार दूकान बढ़ा चुके थे. लेकिन फिर भी काफी शोर सा लग रहा था. मै भी हाँथो  मे चाय का गिलास लेकर पास मे पड़ी बेंच पर बैठ गया. और ये शोर कहाँ से आ रहा है...... सोचने लगा..... बाज़ार के चौराहे पर लगा लाउडस्पीकर खामोश था..... जैसे दिन बहर चीखने के बाद अपने गले को आराम दे रहा हो....... लेकिन शोर ..... काफी शोर था...... नहीं  समझ मे आया....  चाय भी खत्म हो चली थी....... गिलास रखा, और घर की तरफ चहलकदमी करने लगा. थोड़ी ही दूर गया हूँगा की वही शांत वातावरण ........ मै फिर पलटा और बाज़ार की तरफ चल दिया..... आज तो ये तय  कर लिया   था की ये क्या है......

बाज़ार पहुंचा तो रात 11.15 बजे थे...... दूधिया रौशनी से अभी भी बाज़ार जगमगा  रहा था..... मुझे लगा की ये जो भारीपन, ये जो शोर बाज़ार मे है.... जबकि तक़रीबन सारी दुकाने बंद हो चुकी हैं.......   ये हो ना हो रौशनी का है...... हाँ ये रौशनी का ही तो है. मेरे घर के नीचे जो सरकारी बत्ती लगी है.... जब वो अपने पूरे शबाब  पर जलती है और जब वो नहीं जलती है ( साधारणतया वो जलती नहीं है) तब के माहोल का अंतर मैने तब महसूस किया. जब घरों की टिमटिमाती लाईट एक अजीब सा लेकिन अच्छा सा सुकून दे जाती है..... घर के सामने पहाड़ों पर बसे घरों मे जब लाइट झिलमिलाती है...... यकीन मानियेगा..... नहीं लगता की मै इसी धरती पर हूँ. और कभी कभी किसी घर के रेडियो कोई पुराना सा गाना सुनाई पड़ता है.... तो वक़्त यहीं रुक जाए...... बस यही तमन्ना होती है.

हलकी , मद्धिम सी लाईट, हल्का सा संगीत...... दिल को छु लेने वाला......और यादें......... कहाँ मिलता है ये संगम. आजकल............ अब तो रौशनी भी शोर मचाने लगी है........... बहुत......

मै एक पैमाना देता हूँ........मेरी बालकनी  मे बैठकर, देर शाम को...... एक बार " दिल मे एक लहर सी उठी है अभी, कोई ताजा हवा चली है अभी...." इस ग़ज़ल को सुनिए....... फिर बताइए..... रौशनी शोर मचाती है की नहीं....... अगर रौशनी शोर ना मचाती..... तो सोते समय हम लाईट बंद करके नहीं सोते........... बोलो, सच है ना............

1 comment:

कौशल तिवारी 'मयूख' said...

रौशनी शोर मचाती है