चलते चलते शाम होने को आई लेकिन जाना काफी दूर भी था , चलता न रहता तो और क्या करता। रास्ते में रुक के दम ले लूँ मेरी आदत नहीं , लौट कर वापस चला जाऊँ मेरी फितरत नहीं। लेकिन जब मंज़िल का तसव्वुर ज़हन पर ग़ालिब हो तो पैर का दर्द मायने नहीं रखता। बक़ौल शायर
ठहर के पैर से काँटा निकालने वालों
ये होश है तो जुनूँ क़ामयाब क्या होगा।
ओहो , तो आज जनाब बग़ावत के मूड में हैं।
नहीं बग़ावत तो मेरी ख़ुद से है। और वो भी आज से नहीं कभी से है। जानती हो जब मैंने अपने पीर का वो ख़त या ख़त का वो हिस्सा या सुतूर (लाइन्स) पढ़ा जहाँ जनाब ने फ़रमाया कि मर्द तो वही है जो इक बार कुछ ठान ले उनको अंजाम तक पहुँचा कर ही दम ले। तो ये लाइन एक मीज़ान (तराजू) बन गयी, जिस पर हर रोज़ मैं अपने आप को तौलता हूँ और हर रोज़ हल्का ही पाता हूँ। और ये चीज़ मेरे अंदर ख़ुद बग़ावत पैदा करता है। रोज़ मेरा ज़मीर मुझसे सवाल करता है , रोज़ मुझ पर हँसता है। और मैं कमबख़्त मारा हार के लौट आता हूँ।
लेकिन आप की हिम्मत तो माशा-अल्लाह सलामत है। ये काफी नहीं है क्या ?
मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवाज़ , हिम्मत सलामत है ये मेरे गुरु महाराज, मेरे साहिबे - आलम का करम है लेकिन उसकी इस रहमत को ज़ाया नहीं करना , ये मेरी जिम्मेदारी है। जिंदगी का कौन सा लम्हा आख़िरी है नहीं पता। इसीलिए साहिब ने फ़रमाया कि जिंदगी ऐसे जियो जैसे अगले लम्हे में क़ज़ा रखी है।
तेरे क़दमों पे सर होगा , कज़ा सर पे कड़ी होगी , जिंदगी हो तो ऐसी हो।
क्या यार क्या लिखने बैठा और क्या लिखने लगा। खैर !
अभी और भी है.........
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