Thursday, May 24, 2012

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी.

अरे मालिन माँ ....................रामदीन काका यहाँ आओ....

आनंद के बाद आनंद की घर की सफाई शरू  हुई.....घर में है ही क्या.....चंद हसीनो के बुताँ, चंद हसीनो के खतूत. किताबें , पन्ने कुछ सादे कुछ लिखे हुए....कुछ पर आधे अधूरे अलफ़ाज़....जैसे कुछ  लिखना चाहता हो.....लेकिन छोड़ दिया.........कुछ डायरियां...........ओफो....शरत चंद का तो पूरा संग्रह मौजूद है.....  ये  कौन सी किताब है....ओह..आवारा मसीहा.......आखरी पन्ना..

हमारे हुस्न की इस बेरूखी से था तुम्हे शिकवा, 
मगर सच ये की ना था कोई मेरा चाहने वाला................ज्योति......

मेरे होंठो का तब्बसुम दे गया धोखा तुम्हे, 
तुमने मुझको बाग़ जाना, देख ले सेहरा हूँ मैं.......

ये तो आनंद की डायरी है....देखूं तो क्या लिखा है......

ये.....क्या आनंद मुस्लिम बन गए थे क्या......दायें से बाएं लिखते थे....आखरी पन्ने से शुरुआत करते थे....

चुपके से भेजा था इक गुलाब उनको.....
खुशबू ने शहर भर में मगर तमाशा बना दिया....

आज काफी दिनों बाद घर से निकला.....उस हादसे के बाद. हादसे तो मेरे जीवन का एक हिस्सा ही बनते जा रहे हैं......आज एक तो कल एक...शायद उपर वाले की मेहरबानी होगी......काफी दिनों से उसके घर नहीं गया हूँ.....तबीयत भी नहीं ठीक रहती है.....अब बस और लिखा नहीं जाता. 

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी. 

कोई तो समझने  वाला होगा......क्या कहूँ......

हम तो आग़ज - ए - मुहब्बत में ही लुट गए "फराज", 
लोग कहते थे की अंजाम बुरा होता है......

ऐसा मेरी ही साथ क्यों होता है....लूटना क्या मेरे ही नसीब में है, चोट खाना क्या मेरे ही नसीब में है.....

आज मालिन माँ गाँव जा रही हैं.....

पता नहीं......

चलो जरा घूम के आता हूँ......अरे चुरुट खत्म हो रही है.......

ज्योति ..............के घर जाऊं....ना जाऊं.....जाऊं....ना जाऊं.....

ये संशय क्यों......पता नहीं......

चीजें उतनी आसान नहीं है.......

आनंद.....अगर बोलोगे नहीं तो लुटते रहो.....अपनों के ही हाँथो....अब हँस क्यों रहे हो.....अपने उपर या हालातों के उपर.....

ना रे ना.....

क्या बोलूं.....बता तो जरा. 

ज्योति से मुहब्बत है...ये बोलूं......

क्या बताएं उसको उससे क्या छुपायें हम की जो, 
एक नज़र में जो ले ज़हन  और दिल की तलाशी साथ साथ.....

ले बिटिया ...चाय ले.....ले....मालिन माँ की गंभीर सी आवाज़......वो खनक खत्म हो गयी....वो चुलबुलापन खत्म....

सब हवाएं ले गया मेरे समंदर की कोई, 
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया. ......

एक बिखराव की तरफ.....लेकिन , लेकिन.........

दर्द होता है...ज्योति बहुत दर्द होता है......तकलीफ भी बहुत होती है.....मैं भी तो इंसान ही हूँ......लेकिन ..

जब्त का अहद भी है शौक का पैमाना भी है,
अहदे पैमाँ से गुजर जाने को जी चाहता है,
दर्द  इतना है की हर रग में है महशर बरपा, 
सुकूँ इतना है की मर जाने को जी चाहता है. 

 मैं जानता हूँ कभी कभी में तुम पर नाराज़ भी  हुआ.....लेकिन बुरा नहीं चाहा....मैंने अगर तुमको कभी डांटा भी तो ये मानकर की बुखार उतारने की लिए कड़वी दवा भी खानी पड़ती है...

लेकिन..............ये भी मेरी नियति रही की जब मुझे किसी ख़ास अपने की जरूरत हुई...तो में अपने आप को अकेला ही पाया....नितांत अकेला........सब मुझे मझधार में छोड़ कर आगे निकल गए...लेकिन मैंने मुस्कराना नहीं छोड़ा....हौसला नहीं हारा, हिम्मत नहीं छोड़ी.....

लेकिन कहते हैं ना Coming events cast their shadow......मुझे भी अपने अंत का एहसास होने लगा है.....

मैं तो दरिया हूँ हर बूँद भंवर है जिसकी, 
तुमने अच्छा ही  किया मुझसे किनारा कर के......

कहाँ तक तुम मेरे साथ चलतीं ज्योति...... कहाँ तक मेरे साथ चल पाओगी.....सेहरा में कौन चलना चाहेगा.....बोलो तो....? 

कहाँ  इतनी फुर्सत है लोगों को कि जिस्म के पार जाकर दिल में उतर कर किसी को पहचाना जाए.....और अगर जिस्म के पार उतर कर भी आनंद जैसा सेहरा मिला तो.....

अपने आप को चंद पन्नों में कैद कर रहा हूँ.......जैसे कोई हवा को बाँध रहा हो.....

मेरा कारनामा-ए-ज़िन्दगी , मेरी हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं,
ये  किया नहीं....वो हुआ नहीं.....ये मिला नहीं...वो रहा नहीं......

लोग पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या कहते हैं......मगर अच्छा नहीं कहते.....और मैं बुरा नहीं हूँ.....ये भी नहीं कहते. इस शहर में बसने नहीं देते..... और दुनिया से जाने नहीं देते..

लेकिन  .............उम्र जलवों मे बसर हो , ये जरुरी तो नहीं , हर शबे-ग़म कि सहर हो ये जरुरी तो नहीं.....

चंद  पन्ने .........अलमारी में दाहिनी और रखे हैं........उनको निकाल लेना.......

उनको पढ़ना....फिर देखना पन्ने दर पन्ने ...कोई आदमी ज़िन्दगी कैसे जीता है.....अलफ़ाज़....आदमी का साथ कैसे छोड़ते है.....

.....पन्ने दर पन्ने .....ज़िन्दगी.

Wednesday, May 23, 2012

अंतिम संस्कार .............

और  फिर सब कुछ  खत्म........

खाक  ख़ाक  में  मिल गयी......

ज्योति.......मैं  कभी अपने लिए नहीं जिया...लेकिन बहुत अकेले  जिया.....बिलकुल अकेले।

सूखी शाखों पर तो हमने लहू छिड़का था फ़राज़
कलियां अब भी न खिलती तो कयामत होती............

अब जब की ये कहानी खत्म हो चली है।.....इसके पात्रों से एक  बार  फिर  आप  का तारुफ़  करता चलूँ ......

कहानी।..............

हाँ ...कहानी ही तो थी।......


Tuesday, May 22, 2012

अंतिम संस्कार.....

आनंद नहीं रहा.......यकीन  नहीं हो रहा है।......अरी ज्योति बिटिया।........ये तो मालिन  माँ है।........

आओ  मालिन माँ ............

बिटिया....तेरा आनंद गया .......मालिन माँ  ........जिन्होंने आनंद  के हर  रूप को देखा है।.....बेटे की तरह माना था।.....अब वो नहीं है।.....

बिटिया।..ये चाभी रख ले उसके घर की।......मैं तो गाँव वापस  जा रहीं हूँ।.....अब इस  गाँव में क्या रह गया। 

अरे मालिन।........यहाँ आओ।................ज्योति की माँ ने मालिन माँ को बुलाया। उनको सब जानना था। वो अभी भी ये मानने  को राजी नहीं की आनंद नहीं रहा। 

ये सच है क्या मालिन।......

हाँ चाची ....

पिछले दो महीनो से बहुत परेशान था।......खाना पीना छोड़ कर  सिर्फ  चाय  और चुरुट ........कितना समझाया , कितना पूंछा ...लेकिन  दिल  नहीं  खोल पाया। पता नहीं किस  सदमे को पी रहा था।.......एक  दिन  सवेरे सवेरे झोला लेकर चल  दिया.....मैंने सोचा टहलने जा रहा होगा , सो मैंने भी कुछ  नहीं पूंछा ........दोपहर तक  कोई पता नहीं।......तीसरे पहर संदेशा आया।.....की वो नहीं रहा।......लो चाची ....ये चाभी .....उसका सारा सामन.......घर पर  है।....मैं न  रह  पाउंगी ...मालिन  तो चली गयीं।....

ज्योति ...इस  पशोपेश   में  की अब क्या करे........लेकिन  रसम  अदायगी तो करनी पड़ती है।.....ज्योति  ने हिम्मत करी और उसने खंडहर मैं जाने का निश्चय  किया।.........आनंद का घर ....अब यादों का खंडहर बन गया था।.......दरवाजा खोल  ज्योति अंदर आई।......तो चीजें जैसे उसे तब  मिलती  थीं बिलकुल  वैसी  ही थीं।......गेंदे के फूल  वैसे ही लहरा रहे  थे।.....गुलाब  की कतारें वैसे ही झूम  रहीं  थी।...गुलाब को देख कर ज्योत  को याद आया की इसी गुलाब  के पास खड़े  होने को कहा था एक  बार आनंद ने की देखें गुलाब तुम्हारे सामने टिकता है की नहीं।.... कहीं से कोई  निशाँ  ऐसा  नहीं था जो आनंद  के  न  रहने  का पता दे रहे हों....शायद  कहीं गए हैं अभी आ  जायेंगे।....

कलम  मेज  पर  खुला पड़ा है, शायद कुछ  लिख  रहे होंगे.........पन्ने हवा से उड़ रहे थे।......किताबों  पर  धूल  की परत जमी हुई थी...........आनंद  एक  ना  हारने  वाला इन्सान .....आनंद  ने  ज्योति  को कितनी बार समझाया .....

मुसीबतों से उभरती है शक्सियत यारो 
जो पत्थरों से न उलझे वो आइना क्या है...

ओफ्फो .......कौन सा  पन्ना ....है ये.......

ज्योति.........संभव  है जब तुम ये पढ़ रही हो।....मैं काफी दूर  निकल  गया हूँ।....याद है ज्योति तुम एक बार बहुत  परेशान  थीं।.....जब  मैंने तुमसे कहा था।....की लक्ष्मी बाई  का ध्यान करो।....जो माँ  के रूप अपने बच्चे  को दूध  पिला सकती  है।..और जरूरत पड़ने पर  बच्चे को पीठ पर  बाँध  कर द्दुश्मनो  से लोहा भी ले सकती है।.......

हम ने  माना की तगाफुल  न  क रोगे लेकिन, 
ख़ाक  हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक 

                                   अंतिम संस्कार ......आग अभी ठंडी नहीं हुई है।
                                                                                       ..जारी है।..




अंतिम संस्कार.....

रामदीन ..........एक  पहचानी सी आवाज़  का संबोधन 

कौन है ............दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए रामदीन  काका का सवाल। 

अरे मैं .......  सोहन  लाल 

आओ  भाई.....क्या चिट्ठी लाए हो।..

ये ल़ो ..............सोहन लाळ ...चिट्ठी देकर आगे बढ़ गया। 

किस की चिट्ठी है।..काका ..........ज्योति का सवाल  रामदीन  काका से। 

पता नहीं लो देख  लो।......रामदीन  ने चिट्ठी ज्योति के हाँथ में  रख दी।.........

ये क्या कोना फटा पोस्टकार्ड।.......ज्योति की सांस  सी थम गयी।....वही खड़ी पढने लगी।.....

किसकी चिट्ठी है।...बिटिया।....?? ज्योति की माँ  का सवाल।.......

चिट्ठी माँ  के हाथों कर ज्योति वहीँ जमीन  पर  बैठ  गयी।......

अरी ....क्या हुआ।...  

माँ .......आनंद नहीं रहे।......

क्या.......................

एक  महीना हुआ।........

क्या कह रही है।.......तू होश में तो है।.....

उनके घर से चिट्ठी आई है।.....

तो वो यहाँ नहीं था........ तू कब  से नहीं मिली उससे।......  क्या हुआ था उसे.........

ज्योति क्या जवाब देती।......कैसे कहती की मैं खुद ही उनसे किनारा कर बैठीं हूँ।....

                                                                                                                                 अंतिम  संस्कार ...जारी है।. 


Friday, May 11, 2012

कौन दे .........................

दिन  बीतते गए  वक़्त  गुजरता गया..........लोग  मिलते  रहे , लोग  जुदा होते रहे।..... बहुत  कम  लोग  ऐसे मिले  जो आनंद  के जीवन  पर  छाप  छोड़ गए......आज  वक़्त  मिला  तो आनंद ने  अपने आप को  पलट  देखा... जिसे  जानता था वो, आनंद अब  कहीं नहीं है।....

वक़्त क़ी  आग  ने आनंद  को तपा तपा कर .....बहुत  मजबूत  बना  दिया  है।... आनंद .........अब  इसमे भी  आनंद  का  अनुभव  कर  रहा है ......क्या  पता इस  में  क्या  अच्छाई  छिपी है।.....रेगिस्तान  में  खड़े  खजूर  के  पेड़ को देखो ........... हाँ ......आनंद  अब वो है।......गरम  हवा  और गरम  रेत .........पता  नहीं नियति  उसको  किस  दिशा में  ले ज़ा  रही हैं।.....

कहाँ  तक  लडे ..............कहाँ  तक........थक  गया है ....वो......

लेकिन  आराम  करने क़ी  मनाही  है........जहर  पीते पीते जिगर  छलनी  हो गया  है।.......

तो ........क्या   करेगा  आनंद ....... अब ..

सवाल  तो  बहुत हैं।...... मगर जवाब  कौन दे।......

कौन  दे .........................


Monday, May 7, 2012

फूलो रे नीम फूलो....

मुहब्बत .............हमने माना ज़िन्दगी बर्बाद करती है
ये क्या कम है कि मर जाने पर दुनिया याद करती है.........
किसी के इश्क में दुनिया लूटा  कर हम भी देखेंगे......

कौन कहता है मुहब्बत ज़िन्दगी बर्बाद करती है..........मुझे ख्वाहिश नहीं दुनिया को जीत लेने कि.......बस एक तुम्हारे दिल में बस जाऊं.....साथ हो जाऊं.....तो दुनिया.....आबाद हो जाए.......ये किस एहसास को ज़िंदा कर दिया तुमने......और उपर से ये फासले.....और ये मजबूरियाँ......मुहब्बत कि आग को और परवान चढ़ा रहीं हैं......त्तुम भी तो इसी दरिया से गुजर रही हो........आँखों के पानी से ये आग कब बुझी है.......ये तो और बढ़ी है.......यकीन ना मानो.....तो अपने दिल में झाँक कर देख लो.....हाँथ कंगन को आरसी क्या......लिखना....फिर मिटा देना....फिर लिखना..फिर मिटा देना.....ये हाल तुम्हारा ही नहीं.......मेरा भी है.....

उल्फत का मज़ा तब है, जब दोनों हों बेकरार....
दोनों तरफ हो आग, बराबर लगी हुई......

कब धीरे-धीरे तुम मेरे अंदर उतर गयीं....पता ही नहीं चला....ये कैसी ख़ुमारी पैदा कर दी तुमने.....नशा है मुझको....तुम्हारा नशा....आंखें तरस गयीं....तुमको देखने के लिए......मैं जानता हूँ.....ये एक स्वप्न जैसा है......लेकिन उम्मीद का दिया तो ज़िन्दगी का दिया बुझने के बाद ही बुझता है..........कितना इत्मीनान देता है......सिर्फ एक ये एहसास ...कि कहीं एक दिल है जो मेरे लिए भी धड़क रहा है......झूठ मानो तो पूंछ लो दिल से.......मैं कहूँगा तो रूठ जाओगे......ये भी किस्मत कि मजबूरी देखो.....कि..

जब नाम तेरा प्यार से लिखतीं है उंगलियाँ....
मेरी तरफ जमाने कि उठती हैं उंगलियाँ.

सच मानो एक बार सिर्फ एक बार.......कागज पर मेरा नाम लिखो.....और फिर देखो उस कागज को फाड़ने मैं...कितनी तकलीफ होती है.........मैं इस दौर से गुजर रहा हूँ...इसलिए तुम से बयाँ कर रहा हूँ......मैने तुमसे कहा था....कि तुम एक सागर हो...और मैं एक छोटी सी नदी....तुम मुझे अपने में ले क्यों नहीं लेतीं.....प्यार में दो कि गुंजाइश कहाँ होती.......

तुम ही तुम, तुम ही तुम, तुम ही तुम, तुम ही तुम,
जिधर देखें, जहाँ जाएँ.....

है ना पागलपन.....लेकिन वो प्यार ही क्या.....जिसमे "मैं" और "तुम" दोनों रह जाएँ....... वो नशा ही क्या जो सर चढ़ के ना बोले.....सही है ना....बोलो तो.

अब तो कुछ बोलो..........जो बात इस सीने में दफन हो गयी......वो दफन ही रहती है......बहने दो अपने आप  को, एक अलह्र्ट नदी कि तरह, एक पहाड़ी झरने कि तरह......फूटने दो इसमे से कविता के स्वर.....दर्द के नहीं...प्रेम के.....देखों...पूरब में लाली छाने लगी है.....आज तुम रोकेगी नहीं अपने आप को......बहो....निर्झर बहो.....महसूस करो.....मुहब्बत कि इस दुनिया में तुम्हारा इंतज़ार है........

किसी नज़र को तेरा इंतजार आज भी है,
कहाँ हो तुम, कि ये दिल बेकरार आज भी है.......

रोको मत अपने आप को...पैरों में..लेकिन, किन्तु कि बेड़ियाँ मत डालो......

फूलो रे नीम फूलो....