अरे मालिन माँ ....................रामदीन काका यहाँ आओ....
आनंद के बाद आनंद की घर की सफाई शरू हुई.....घर में है ही क्या.....चंद हसीनो के बुताँ, चंद हसीनो के खतूत. किताबें , पन्ने कुछ सादे कुछ लिखे हुए....कुछ पर आधे अधूरे अलफ़ाज़....जैसे कुछ लिखना चाहता हो.....लेकिन छोड़ दिया.........कुछ डायरियां...........ओफो....शरत चंद का तो पूरा संग्रह मौजूद है..... ये कौन सी किताब है....ओह..आवारा मसीहा.......आखरी पन्ना..
हमारे हुस्न की इस बेरूखी से था तुम्हे शिकवा,
मगर सच ये की ना था कोई मेरा चाहने वाला................ज्योति.... ..
मेरे होंठो का तब्बसुम दे गया धोखा तुम्हे,
तुमने मुझको बाग़ जाना, देख ले सेहरा हूँ मैं.......
ये तो आनंद की डायरी है....देखूं तो क्या लिखा है......
ये.....क्या आनंद मुस्लिम बन गए थे क्या......दायें से बाएं लिखते थे....आखरी पन्ने से शुरुआत करते थे....
चुपके से भेजा था इक गुलाब उनको.....
खुशबू ने शहर भर में मगर तमाशा बना दिया....
आज काफी दिनों बाद घर से निकला.....उस हादसे के बाद. हादसे तो मेरे जीवन का एक हिस्सा ही बनते जा रहे हैं......आज एक तो कल एक...शायद उपर वाले की मेहरबानी होगी......काफी दिनों से उसके घर नहीं गया हूँ.....तबीयत भी नहीं ठीक रहती है.....अब बस और लिखा नहीं जाता.
पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी.
कोई तो समझने वाला होगा......क्या कहूँ......
हम तो आग़ज - ए - मुहब्बत में ही लुट गए "फराज",
लोग कहते थे की अंजाम बुरा होता है......
ऐसा मेरी ही साथ क्यों होता है....लूटना क्या मेरे ही नसीब में है, चोट खाना क्या मेरे ही नसीब में है.....
आज मालिन माँ गाँव जा रही हैं.....
पता नहीं......
चलो जरा घूम के आता हूँ......अरे चुरुट खत्म हो रही है.......
ज्योति ..............के घर जाऊं....ना जाऊं.....जाऊं....ना जाऊं.....
ये संशय क्यों......पता नहीं......
चीजें उतनी आसान नहीं है.......
आनंद.....अगर बोलोगे नहीं तो लुटते रहो.....अपनों के ही हाँथो....अब हँस क्यों रहे हो.....अपने उपर या हालातों के उपर.....
ना रे ना.....
क्या बोलूं.....बता तो जरा.
ज्योति से मुहब्बत है...ये बोलूं......
क्या बताएं उसको उससे क्या छुपायें हम की जो,
एक नज़र में जो ले ज़हन और दिल की तलाशी साथ साथ.....
ले बिटिया ...चाय ले.....ले....मालिन माँ की गंभीर सी आवाज़......वो खनक खत्म हो गयी....वो चुलबुलापन खत्म....
सब हवाएं ले गया मेरे समंदर की कोई,
और मुझको एक कश्ती बादबानी दे गया. ......
एक बिखराव की तरफ.....लेकिन , लेकिन.........
दर्द होता है...ज्योति बहुत दर्द होता है......तकलीफ भी बहुत होती है.....मैं भी तो इंसान ही हूँ......लेकिन ..
जब्त का अहद भी है शौक का पैमाना भी है,
अहदे पैमाँ से गुजर जाने को जी चाहता है,
दर्द इतना है की हर रग में है महशर बरपा,
सुकूँ इतना है की मर जाने को जी चाहता है.
मैं जानता हूँ कभी कभी में तुम पर नाराज़ भी हुआ.....लेकिन बुरा नहीं चाहा....मैंने अगर तुमको कभी डांटा भी तो ये मानकर की बुखार उतारने की लिए कड़वी दवा भी खानी पड़ती है...
लेकिन..............ये भी मेरी नियति रही की जब मुझे किसी ख़ास अपने की जरूरत हुई...तो में अपने आप को अकेला ही पाया....नितांत अकेला........सब मुझे मझधार में छोड़ कर आगे निकल गए...लेकिन मैंने मुस्कराना नहीं छोड़ा....हौसला नहीं हारा, हिम्मत नहीं छोड़ी.....
लेकिन कहते हैं ना Coming events cast their shadow......मुझे भी अपने अंत का एहसास होने लगा है.....
मैं तो दरिया हूँ हर बूँद भंवर है जिसकी,
तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा कर के......
कहाँ तक तुम मेरे साथ चलतीं ज्योति...... कहाँ तक मेरे साथ चल पाओगी.....सेहरा में कौन चलना चाहेगा.....बोलो तो....?
कहाँ इतनी फुर्सत है लोगों को कि जिस्म के पार जाकर दिल में उतर कर किसी को पहचाना जाए.....और अगर जिस्म के पार उतर कर भी आनंद जैसा सेहरा मिला तो.....
अपने आप को चंद पन्नों में कैद कर रहा हूँ.......जैसे कोई हवा को बाँध रहा हो.....
मेरा कारनामा-ए-ज़िन्दगी , मेरी हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं,
ये किया नहीं....वो हुआ नहीं.....ये मिला नहीं...वो रहा नहीं......
लोग पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या कहते हैं......मगर अच्छा नहीं कहते.....और मैं बुरा नहीं हूँ.....ये भी नहीं कहते. इस शहर में बसने नहीं देते..... और दुनिया से जाने नहीं देते..
लेकिन .............उम्र जलवों मे बसर हो , ये जरुरी तो नहीं , हर शबे-ग़म कि सहर हो ये जरुरी तो नहीं.....
चंद पन्ने .........अलमारी में दाहिनी और रखे हैं........उनको निकाल लेना.......
उनको पढ़ना....फिर देखना पन्ने दर पन्ने ...कोई आदमी ज़िन्दगी कैसे जीता है.....अलफ़ाज़....आदमी का साथ कैसे छोड़ते है.....
.....पन्ने दर पन्ने .....ज़िन्दगी.