कभी किसी किताब का शीर्षक , किसी की जिन्दगी पर कितना सही बैठता है..देखा तुमने....ज्योति...हाँ ये शीर्षक है हरवंशराय बच्चन की आत्मकथा का....लेकिन देखो कितना सही बैठा है मेरे उपर.....नीड़ का निर्माण फिर....कहाँ से चला....और कहाँ पहुंचा...ओह...सीने पर हाँथ मत रखो...अंदर कुछ चुभ रहा है.....दर्द भी है.....लेकिन किस से कहूँ.....क्या विडंबना है न ज्योति....हम सब हर वक़्त लोगों से घिरे रहते हैं...लेकिन फिर भी अकेले रहते हैं....बिलकुल अकेले.
मुस्कराने की आदत भी अच्छी आदत है..बहुत कुछ छुपा लेती है, बहुत सी बातों पर पर्दा डाल देती है....तुम सुन रही हो न ज्योति.....
हाँ आनंद सुन रही हूँ..यही पर हूँ....चुप मत हो..और बोलो.....बोलो न.
क्या बोलूं...
घर से निकले थे हम मस्जिद की तरफ जाने को,
रिंद बहका के हमे ले गए मैखाने को.
ज्योति..ये जो तुम्हारा उपर वाला है न... इतना आजमाता है क्यों है अपने चाहने वालों को....
क्यों आनंद ...क्या किया उसने.....?
अरे उसने कुछ नहीं किया.... जो कुछ मेरे नसीब मै लिखना था...लिख दिया. ज्योति..जो बाते हम बातों बातों मे दूसरों को बताते हैं...उनको अपने उपर आजमाने का वक़्त आया है....वो भी देखना चाहता है.... की कितना लोहा है हमारे अंदर......तिनके तिनके इकअठे कर रहा हूँ...
नीड़ का निर्माण फिर....
1 comment:
शुक्र है वापसी तो हुई……………नीड का निर्माण तो करना ही पडेगा आखिर कब तक बेआसरे कोई उडता फ़िरे कोई तो ठिकाना चाहिये ना ठहरने के लिये………सुस्ताने के लिये…………घर वापस आने का कोई तो बहाना हो…………यूँ ही तो कदम वापस नही मुडा करते…………बहुत खूब आगे का इंतज़ार रहेगा।
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