Tuesday, June 5, 2012

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी

सुंदर लाल चला गया।.......

ज्योति लौट कर आई तो देखा मेज पर  रखा हुआ लिफाफा ................सोचती रही क्या कर।..पढूं या न पढूं।....  चलो पढ़ कर देखने में क्या नुकसान है. 

उसने लिफ़ाफ़े में से ख़त निकाला......

प्रिय मित्र, 

काफी समय से तुम से मुलाक़ात नहीं हुई  और मैं तुम्हे भूल गया हूँ ऐसा भी नहीं...

तुम तो मेरे सुख दुःख के सहभागी रहे हो....तुमने मेरे जीवन के अनेक उतार चढ़ावों को देखा है. तुम तो जानते हो सुंदर...मैं कितना अपने लिए जिया हूँ...बस अब और नहीं. अब चादर समेट लेने का वक़्त आ गया लगता है. ...पिछले इक महीने से vomiting में खून आ रहा है.....लगता है चाय और चुरुट ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है. गुस्सा मत होना वैद्य जी के पास गया था...65 मिनट उनके साथ था.....साठ मिनट डांट पिलाई और पांच मिनट दवाई.....खांसी बढ़ गयी है और ज्वर भी लगातार बना रहता है....थकान बहुत है. खाने पीने से मन हट गया है. सुंदर....जीवन मे एकाकीपन भरता जा रहा है......इतनी चोटें खाई है सुंदर की अब और चोट खाने की हिम्मत भी नहीं बची है......कोई नहीं है.....सब अपने काम से काम से लग गए हैं....और कोई किनारा कर चुका है......२ महीने हो गए हैं घर से निकला नहीं हूँ.......वैद्य जी कह रहे हैं की हवा पानी बदलने की लिए कुछ दिन पास के गाँव हो आओ.......

ज्योति......हाँ ज्योति....अब चोंको मत.....अच्छी है अपने घर परिवार में मस्त है व्यस्त है....२ महीने पहले देखा था.....कब तक वो भी मेरी देखभाल करे.....कोई बच्चा तो नहीं हूँ.....लेकिन सुंदर.....वो मेरी बहुत अपनी है......वो साथ रहती है तो हिम्मत बंधी रहती है.....एक हौसला सा बना रहता है...लेकिन कब तक वो भी साथ दे.....समाज के अपने कायदे क़ानून हैं.....लेकिन सुंदर...ये समझ में नहीं आया की बिना कारण बताये या जुर्म बताये किसी को सजा देना क्या ठीक है....और वो भी उसको जो उसके उपर निर्भर हो.....वो भी पूरी तरह से.....शायद ठीक हो......पता नहीं सुंदर.....मैं इतना दुनियादार्री तो नहीं जानता हूँ....किसी को अपना मानता हूँ तो वो तुम हो और ज्योति......

पिछले महीने स्कूल का वार्षिक समारोह था..तबीयत ठीक ना होने की वजह से जा नहीं पाया....संपत राम आया था समारोह की तस्वीरें लेकर. ज्योति को उसमे देखा..वो बहुत सुंदर लग रही थी.....सुना सारे कार्यक्रम की बागडोर ज्योति के हाँथ में थी...मैं बहुत खुश हूँ...... लेकिन इजहार करना मैं ना सीख पाया....तुम्हारी अगर ज्योति से मुलाक़ात हो.....और 
हमारी बेखुदी का हाल वो पूंछे अगर,
तो कहना होश बस इतना है की तुमको याद करते हैं...

तुमको मेरे घर के पीछे वाली खिड़की तो याद होगी......जहाँ से घर के पीछे का खुला मैदान दिखाई पड़ता था.....दूर तक धूप ही धूप और एक नीम का पेड़...और मैदान से गुजरती हुई रेल की पटरी......सुंदर...मेरा जीवन भी उसी मैदान की तरह हो गया सूखा नीरस......और मेरे हृदय पर धड़ा धड़ा धड़ा धड़ा चलती हुई  रेल जो दिल को छलनी करती हुई चली जाती है और फिर देर तक सन्नाटा , सूनापन........

सुंदर कभी कभी अफ़सोस होता है की मैं अपने लिए क्यों नहीं जिया ....शुरू से ही , जीवन की शुरुआत से ही......कुछ ढूंढता रहा......

एक चेहरा साथ साथ रहा पर मिला  नहीं, 
किसको तलाशते रहे कुछ पता नहीं.....

ज्योति के साथ वो रिक्तता पूरी सी हो चली थी......जीवन मे रस और रंग दोनों का ही समावेश हो रहा था...लेकिन विधि ...उसको तो कुछ और ही मंजूर था....

जिसको तुम पूंछते हो , वो मर गया फ़राज़,
उसको किसी की याद ने ज़िंदा जला डाला
..............

बहुत तकलीफ है, सुंदर....दर्द बहुत है.....

उसी का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ, 
हमें यकीं था हमारा कसूर निकलेगा. 

अब वक़्त-ए- रुखसत आ चला है........मालिन माँ की चिंता है.....बहुत परेशान है मुझको लेकर.....मुझसे कह रही थी की मैं ज्योति से बात करूँ क्या.....

मैंने मना कर दिया.......

मिली मुझे जो सजा वो किसी खता पे न थी फ़राज़,
मुझे पे जो जुर्म साबित हुआ वो वफ़ा का था।...

पन्ने दर पन्ने ...ज़िन्दगी 

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