ज्योति तुम्हें याद है वो दिन....जब माता- पिता के घर में रहते थे..साधारण सा घर....सब का स्वागत करने के लिए खुला हुआ दरवाजा, हवा से उड़ता हुआ पर्दा....अगर घर में कालीन बिछ गया तो मतलब कोई ख़ास आने वाला है....उसी कालीन के उपर खेलते हुए बच्चे, माँ की जोर से आती हुई आवाज़....देखो कालीन पे पानी गिर जायेगा....दरवाजे के पास पड़ी हुई आरामकुर्सी....राम राम भाई साहब ..कहते हुए आते-जाते हुए लोग...अरे शर्मा जी ......आओ भाई.....पिता जी का अपने मित्र को बुलाना.....और फिर माँ से एक प्यार भरी गुजारिश की देखो शर्मा जी के लिए एक कप चाय बन सकती है क्या........ये भी अंदाज होता था ...ज्योति...बात कहने का. सीधे नहीं कह सकते थे की उनको चाय चाहिए....पिता जी इस गुजारिश पर माँ का झुन्झुला जाना...और फिर लीजिये..चाय...कहते हुए सफ़ेद चीनी मिटटी के कप में सांवली सी चाय.....कहाँ गए वो दिन....
घर तो अब भी हैं....परदे भी आदमी भी..लेकिन इंसान नहीं मिलता है....वो छेड़छाड़ नहीं मिलती....वो चुहलबाज़ी नहीं होती....जादे के दिनों में रजाई में पाँव पसार कर....चाय और पकोड़ी....कि मांग अब नहीं होती....और अब भाभी से मजाक नहीं होता.......
जारी है.....
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